aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "फ़िक़रा"
प्रकाश फ़िक्री
1931 - 2008
शायर
फ़िक्र तौंसवी
1918 - 1987
लेखक
अल्ताफुर्रहमान फ़िक्र यज़दानी
d.1964
हैदर फ़िक्री
इदारा-ए-फ़िक्र-ए-इस्लामी, कराची
पर्काशक
इदारा फ़िक्र-ए-जदीद, नई दिल्ली
सय्यद इब्राहीम फ़िक्री
मकतबा-ए-फ़िक्र, लाहौर
मर्कज़ फ़िक्र-ओ-फ़न, दिल्ली
फ़िक्र-ए-जदीद, लखनऊ
हल्क़ा-ए-फ़िक्र-ओ-शुऊर, दिल्ली
रियासत हुसैन फ़िक्र
दारुल-फिक्र, दमिश्क
फ़िक्र-ओ-ज़िक्र बुक्स, कृश्नगरी
अंजुमन फ़िकर-ओ-नज़र, इलाहाबाद
रात की नींद हराम है तो दिन का चैन मफ़क़ूद। अलावा अज़ीं उनके क़ुर्ब से हमारी बहू बेटियों के अख़लाक़ पर जो असर पड़ता है इसका अन्दाज़ा हर साहिब-ए-औलाद ख़ुद कर सकता है। आख़िरी फ़िक़रा कहते-कहते उनकी आवाज़ भर्रा गई और वो इससे ज़्यादा कुछ न कह सके। सब अराकीन-ए-बलदिया को उनसे हमदर्दी थी क्यों कि बद-क़िस्मती से उनका मकान उस बाज़ार-ए-हुस्न के ऐन वस्त में वाक़े था। उनक...
ग़ालिब: मियां मिट्ठू, न तुम्हारे जोरू न बच्चे, तुम किस फ़िक्र में सर झुकाए बैठे हो।उमराव बेगम: मैं कहती हूँ ये तुम्हें हो क्या गया है और कुछ न मिला तो इस तोते के पीछे पड़ गए।
इस पर वो ज़रा हंसे और बोले, "कारकुनान-ए-गज़्मा-ख़ाना रानो रा तौकीफ़ करदंद कारकुनान-ए-गज़्मा ख़ाना, थाने वाले। भूलना नहीं नया लफ़्ज़ है। नई तरकीब है, दस मर्तबा कहो।"मुझे पता था कि ये बला टलने वाली नहीं, न चार गज़्मा ख़ाना वालों का पहाड़ा शुरू कर दिया, जब दस मर्तबा कह चुका तो दाऊ जी ने बड़ी लजाजत से कहा अब सारा फ़िक़रा पाँच बार कहो। जब पंजगाना मुसीबत भी ख़त्म हुई तो उन्होंने मुझे आराम से बिस्तर में लिटाते हुए और रज़ाई ओढ़ाते हुए कहा, "भूलना नहीं! सुब्ह उठते ही पूछूंगा।" फिर वो जिधर से आए थे उधर लौट गए।
पण्डित जवाहर लाल नेहरू और क़ाएद-ए-आज़म जिनाह के नाममुझे उम्मीद है कि इससे पहले आपको किसी तवाइफ़ का ख़त न मिला होगा। ये भी उम्मीद करती हूँ कि कि आज तक आपने मेरी और इस क़ुमाश की दूसरी औरतों की सूरत भी न देखी होगी। ये भी जानती हूँ कि आपको मेरा ये ख़त लिखना किस क़दर मायूब है और वो भी ऐसा खुला ख़त मगर क्या करूँ हालात कुछ ऐसे हैं और इन दोनों लड़कियों का तक़ाज़ा इतना शदीद हो कि मैं ये ख़त लिखे बग़ैर नहीं रह सकती। ये ख़त मैं नहीं लिख रही हूँ, ये ख़त मुझसे बेला और बतूल लिखवा रही हैं। मैं सिद्क़-ए-दिल से माफ़ी चाहती हूँ, अगर मेरे ख़त में कोई फ़िक़रा आपको नागवार गुज़रे। उसे मेरी मजबूरी पर महमूल कीजिएगा।
हालाँकि इससे पहले भी मिर्ज़ा को कई मर्तबा टोक चुका था कि ख़ाक़ानि-ए-हिन्द उस्ताद ज़ौक़ हर क़सीदे के बाद मुंह भर-भर के कुल्लियाँ किया करते थे। तुम पर हर कलमे, हर फ़िक़रे के बाद वाजिब हैं लेकिन इस उक़्त मरहूम के बारे में ये ऊल-जुलूल बातें और ऐसे व अश्गाफ़ लेहजे में सुनकर मेरी तबीयत कुछ ज़्यादा ही मुनग़्ग़ज़ हो गई। मैंने दूसरों पर ढाल कर मिर्ज़ा को सुनाई, “ये कैसे मुसलमान हैं मिर्ज़ा! दुआ-ए-मग़्फ़िरत नहीं करते, न करें। मगर ऐसी बातें क्यों बनाते हैं ये लोग?”
वहम एक ज़हनी कैफ़ियत है और ख़याल-ओ-फ़िक्र का एक रवैया है जिसे यक़ीन की मुतज़ाद कैफ़ियत के तौर पर देखा जाता है। इन्सान मुसलसल ज़िंदगी के किसी न किसी मरहले में यक़ीन-ओ-वहम के दर्मियान फंसा होता है। ख़याल-ओ-फ़िक्र के ये वो इलाक़े हैं जिनसे वास्ता तो हम सब का है लेकिन हम उन्हें लफ़्ज़ की कोई सूरत नहीं दे पाते। ये शायरी पढ़िए और उन लफ़्ज़ों में बारीक ओ नामालूम से एहसासात की जलवागरी देखिए।
नए साल की आमद को लोग एक जश्न के तौर पर मनाते हैं। ये एक साल को अलविदा कह कर दूसरे साल को इस्तिक़बाल करने का मौक़ा होता है। ये ज़िंदगी के गुज़रने और फ़ना की तरफ़ बढ़ने के एहसास को भूल कर एक लमहाती सरशारी में महवे हो जाता है। नए साल की आमद से वाबस्ता और भी कई फ़िक्री और जज़्बाती रवय्ये हैं, हमारा ये इंतिख़ाब इन सब पर मुश्तमिल है।
ख़ुदी इंसान के अपने बातिन और उजूद को पहचानने का एक ज़रिया है। कई शायरों ने ख़ुदी के फ़लसफ़े को मुनज़्ज़म अंदाज़ से अपनी फ़िक्री और तख़्लीक़ी असास के तौर पर बर्ता है। अगर्चे इस तरह के मज़ामीन शायरी में आम रहे हैं लेकिन इक़बाल के यहाँ ये रवय्या हावी है। इस शायरी के पढ़ने से आप को अपनी उजूदी अज़मतों का एहसास भी दिलाएगी।
फ़िक़राفقرہ
sentence
वाक्य, जुम्ला, छल की बात, बहाना, मिप, रीढ़ का गुरिया, तंज़, व्यंग, कटाक्ष ।
फ़िक़राفقرا
short sentence
इक़बाल की तवील नज़्में
रफ़ीउद्दीन हाश्मी
शायरी
मंटो का सरमाया-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न
निगार अज़ीम
आलोचना
इक़बाल का ज़ेहनी-ओ-फ़िक्री इर्तिक़ा
ग़ुलाम हुसैन ज़ुल-फ़िक़ार
Chhata Darya
डायरी
प्रेम चन्द फ़िक्र-ओ-फ़न
क़मर रईस
ग़ालिब फ़िक्र-ओ-फ़न
रशीद हसन ख़ाँ
मज़ामीन / लेख
Shumara Number-004
रशमी चौधरी
Oct, Nov, Dec 2006फ़िक्र-ओ-तहक़ीक़
Aadha Aadmi
गद्य/नस्र
Chaupat Raja
हास्य-व्यंग
शज़रात-ए-फ़िक्र-ए-इक़बाल
जावेद इक़बाल
शोध
Salnama
मुमताज फ़ाख़िरा मुजीब
फ़िक्र-ए-नौ, नई दिल्ली
Shumara Number-003
इर्तिज़ा करीम
Jul, Aug, Sep 2015फ़िक्र-ओ-तहक़ीक़
ग़ालिब की फ़िक्री वाबस्तगियां
अनवर मोअज़्ज़म
Shumara Number-002
अनवार रिज़वी
Apr, May, Jun 1999फ़िक्र-ओ-तहक़ीक़
Shumara Number-000
आज़र्मी दख़्त सफ़वी
Jul 2011फ़िक्र-ओ-नज़र, अलीगढ़
“तुम अपने दुख मुझे दे दो।”मदन सख़्त हैरान हुआ। साथ ही अपने आप पर एक बोझ उतरता हुआ महसूस हुआ। उसने चाँदनी में एक बार फिर इंदू का चेहरा देखने की कोशिश की लेकिन वह कुछ न जान पाया। उसने सोचा ये माँ या किसी सहेली का रटा हुआ फ़िक़रा होगा जो इंदू ने कह दिया। जभी ये जलता हुआ आँसू मदन के हाथ की पुश्त पर गिरा। उसने इंदू को अपने साथ लिपटाते हुए कहा, “दिये!”
सर-ए-फ़हरिस्त उन मिज़ाजपुर्सी करने वालों के नाम हैं जो मर्ज़ तशख़ीस करते हैं न दवा तजवीज़ करते हैं। मगर उसका ये मतलब नहीं कि वो मुन्कसिर मिज़ाज हैं। दरअसल उनका ताल्लुक़ उस मदरसा-ए-फ़िक्र से है जिसके नज़दीक परहेज़ ईलाज से बेहतर है। ये इस शिकम आज़ार अक़ीदे के मोबल्लिग़-ओ-मुअय्यिद हैं कि खाना जितना फीका सीठा होगा सेहत के लिए उतना ही मुफ़ीद होगा। यहां ये बताना बेमहल न होगा कि हमारे मुल्क में दवाओं के ख़वास दरयाफ़्त करने का भी यही मेयार है जिस तरह बा’ज़ ख़ुश एतिक़ाद लोगों को अभी तक ये ख़्याल है कि हर बदसूरत औरत नेक-चलन होती है। उसी तरह तिब्ब क़दीम में हर कड़वी चीज़ को मुसफ़्फ़ा-ए-ख़ून तसव्वुर किया जाता है। चुनांचे हमारे हाँ अंग्रेज़ी खाने और कड़वे कदहे इसी उम्मीद में नोश-ए-जान किए जाते हैं।
जोगिंदर सिंह ने पगड़ी समेत अपने सर को एक ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश दी और कहा, “तरक़्क़ी पसंदी... इसका मतलब तुम फ़ौरन ही नहीं समझ सकोगी। तरक़्क़ी पसंद उसको कहते हैं जो तरक़्क़ी पसंद करे। ये लफ़्ज़ फ़ारसी का है। अंग्रेज़ी में तरक़्क़ी पसंद को रेडिकल कहते हैं। वो अफ़साना निगार, या’नी कहानियां लिखने वाले, जो अफ़साना निगारी में तरक़्क़ी चाहते हों उनको तरक़्क़ी पसंद अफ़स...
अफ़साना लिखने के मुआमले में वो नख़रे ज़रूर बघारता है लेकिन मैं जानता हूँ, इसलिए... कि इसका हमज़ाद हूँ... कि वो फ़राड कर रहा है... उसने एक दफ़ा ख़ुद लिखा था कि उस की जेब में बेशुमार अफ़साने पड़े होते हैं। हक़ीक़त उस के बरअक्स है। जब उसे अफ़साना लिखना होगा तो वो रात को सोचेगा... उसकी समझ में कुछ नहीं आएगा। सुबह पाँच बजे उठेगा और अख़बारों से किसी अफ़साने का...
न जाने कौन सा फ़िक़रा कहाँ रक़म हो जाएदिलों का हाल भी अब कौन किस से कहता है
इतने सारे सवालात उठाने के बाद आपको मज़ीद उलझन से बचाने के लिए कुछ तौज़ीही मफ़रूज़ात या मुस्लिमात का बयान भी ज़रूरी है, ताकि हवाले में आसानी हो सके। पहला मफ़रूज़ा ये है कि बहुत मोटी तफ़रीक़ के तौर पर वो तहरीर शे’र है जो मौज़ूं है, और हर वो तहरीर नस्र है जो नामौज़ूं है। मौज़ूं से मेरी मुराद वो तहरीर है जिसमें किसी वज़न का बाक़ायदा इल्तिज़ाम पाया जाये, यानी ऐसा इ...
अब मेरे दिल में फ़िक़रे खौलने शुरू हुए। पहले इरादा किया कि एक दम ही सब कुछ कह डालो और चल दो। फिर सोचा कि मज़ाक़ समझेगा, इसलिए किसी ढंग से बात शुरू करो लेकिन समझ में न आया कि पहले क्या कहें। आख़िर हम ने कहा,“मिर्ज़ा! भई कबूतर बहुत महंगे होते हैं।”
इस ख़बर ने इश्तिहार पाया।एक दूसरे शख़्स ने कि वो भी अपने आपको दानिशमंद जानता था, दरबार का रुख किया और बा-मुराद फिरा। फिर तीसरा शख़्स, कि अपने आपको अहल-ए-दानिश के ज़मुरे में शुमार करता था। दरबार की तरफ़ चला और ख़िलअ’त लेकर वापस आया। फिर तो एक ताँता बंध गया। जो अपने आपको दानिशमंद गरदानते थे। जौक़ दर जौक़ दरबार में पहुंचते थे और इनाम लेकर वापस आते थे।
उसके चेहरे पर शरारत थी और इस डर के मारे कि वो कोई फ़िक़रा न मार दे मैंने पूछा, “अम्माँ कहाँ हैं?”वो बोली! “तो क्या आप बी-बी जी को देखने यहाँ तक आए थे?”
मोमिन ख़ां को फ़िक़रा कसने का मौक़ा मिल गया और तो कुछ न हुआ, कहता था, “अब तुम वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ।” लेकिन उसकी तअल्लियों से क्या होता है। आप तो रमल फ़ाल से पैसे कमा लेता है, गो ढोंग तबाबत का रचा रखा है। ख़ैर मुझे मिसरा हाथ आ गया। मक़ता नहीं बनता था, न जाने ये मक़ता क्यों ज़रूरी है। मुशायरे की ग़ज़लों में कहना ही पड़ता है। अच्छा भला हो गय...
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