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नज़्म
रक़ीब से!
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ख़ुद हुस्न-ओ-शबाब उन का क्या कम है रक़ीब अपना
जब देखिए अब वो हैं आईना है शाना है
जिगर मुरादाबादी
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नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं