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ग़ज़ल
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
शेर
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
शेर
निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
मज़े की चीज़ है ये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
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नज़्म
भगवान 'कृष्ण' की तस्वीर देख कर
तू ही जाने कहाँ ले आई मुझ को आरज़ू तेरी
ये मंज़िल अब सरापा बे-ख़ुदी महसूस होती है
कँवल एम ए
ग़ज़ल
यूँ तड़प कर दिल ने तड़पाया सर-ए-महफ़िल मुझे
उस को क़ातिल कहने वाले कह उठे क़ातिल मुझे