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ग़ज़ल
मिरी दास्ताँ का उरूज था तिरी नर्म पलकों की छाँव में
मिरे साथ था तुझे जागना तिरी आँख कैसे झपक गई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
अल्लामा इक़बाल
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नज़्म
अपनी मल्का-ए-सुख़न से
फ़िदवी के इस उरूज पे करती है ग़ौर क्या
तेरी ही जूतियों का तसद्दुक़ है और क्या
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
आवाज़-ए-आदम
चलो यूँही सही ये जौर-ए-पैहम हम भी देखेंगे
दर-ए-ज़िंदाँ से देखें या उरूज-ए-दार से देखें
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मैं अपने घर को बुलंदी पे चढ़ के क्या देखूँ
उरूज-ए-फ़न मिरी दहलीज़ पर उतार मुझे