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ग़ज़ल
कभी ख़ुश हो के करते हो 'सिराज' अपने की जाँ-बख़्शी
कभी उस के बुझा देने कूँ क्या क्या दाव करते हो
सिराज औरंगाबादी
नज़्म
सामान दीवाली का
ये हार जीत का चर्चा पड़ा दिवाली का
किसी को दाव पे लानक्की मूठ ने मारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
वसिय्यत
लगा कर जो वतन को दाव पर कुर्सी बचाते हैं
भुना कर खोटे सिक्के धर्म के जो पुन कमाते हैं
कैफ़ी आज़मी
ग़ज़ल
मचल रहा था दिल बहुत सो दिल की बात मान ली
समझ रहा है ना-समझ की दाव उस का चल गया