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ग़ज़ल
क़ामत-ए-जाँ को ख़ुश आया था कभी ख़िलअत-ए-इश्क़
अब इसी जामा-ए-सद-चाक से ख़ौफ़ आता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
ख़ाक-ए-हिंद
हर सुब्ह है ये ख़िदमत ख़ुर्शीद-ए-पुर-ज़िया की
किरनों से गूँधता है चोटी हिमालिया की
चकबस्त बृज नारायण
समस्त
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ग़ज़ल
सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर
हम तो सरकार के मद्दाह हैं ख़िलअत के बग़ैर