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ग़ज़ल
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
अयाँ सूरज हुआ वक़्त-ए-सहर आहिस्ता आहिस्ता
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में