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ग़ज़ल
दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती हैं मिरी मायूसियाँ
आइना मुझ को दिखाती हैं मिरी मायूसियाँ
विपिन सुनेजा शायक़
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ग़ज़ल
बढ़े है दिन-ब-दिन तुझ मुख की ताब आहिस्ता आहिस्ता
कि जूँ कर गर्म हो है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
दिन-ब-दिन अब लुत्फ़ तेरा हम पे कम होने लगा
या तो था वैसा करम या ये सितम होने लगा
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
मोहब्बत दिन-ब-दिन माइल-ब-वहदत होती जाती है
हर इक सूरत में पैदा उन की सूरत होती जाती है
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
ग़ज़ल
दिन-ब-दिन बढ़ती गईं उस हुस्न की रानाइयाँ
पहले गुल फिर गुल-बदन फिर गुल-बदामाँ हो गए