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शेर
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
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ग़ज़ल
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
लिखीं जब कातिब-ए-तक़दीर ने बंदों की तक़दीरें
मिरे हिस्से में इज्ज़ और उन के हिस्से में ग़ुरूर आया
नरेश एम. ए
नज़्म
वो लम्हा कैसा होता है
किसी पादाश की तकमील का हिस्सा
कि हर्फ़-ए-कातिब-ए-तक़दीर होता है
यासमीन हमीद
ग़ज़ल
शिकवा-ए-कातिब-ए-तक़दीर बजा है लेकिन
दस्त-ए-तदबीर में जब दामन-ए-तक़दीर न हो
इफ़्तिख़ार अहमद सिद्दीक़ी
शायरी के अनुवाद
क़लम-ए-कातिब-ए-तक़दीर ने जो लिक्खा है
इस में हिकमत है कोई इस का है गहरा मफ़्हूम