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ग़ज़ल
दुश्मन को तिरे गाड़ूँ मैं ऐ जान-ए-जहाँ बस
तू मुझ को दिलाया न कर इस तौर की क़स्में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मैं इन चाँदी के बाज़ारों पे अपने दाँत क्या गाड़ूँ
चमकती फीकी पड़ती सब दूकानें घटती बढ़ती हैं
कलीम हैदर शरर
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नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
औरत
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं तिरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से जबीं
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
वो हँसती हो तो शायद तुम न रह पाते हो हालों में
गढ़ा नन्हा सा पड़ जाता हो शायद उस के गालों में