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ग़ज़ल
समझना फ़हम गर कुछ है तबीई से इलाही को
शहादत ग़ैब की ख़ातिर तो हाज़िर है गवाही को
ख़्वाजा मीर दर्द
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ग़ज़ल
तक़दीर पे शाकिर रह कर भी ये कौन कहे तदबीर न कर
वा बाब-ए-इजाबत हो कि न हो ज़ंजीर हिला ताख़ीर न कर
आरज़ू लखनवी
नज़्म
विर्सा
ये वतन तेरी मिरी नस्ल की जागीर नहीं
सैंकड़ों नस्लों की मेहनत ने सँवारा है इसे
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
समझते हैं जो अपने बाप की जागीर मिट्टी को
बनाऊँगा मैं उन के पाँव की ज़ंजीर मिट्टी को
ग़ुलाम हुसैन साजिद
हास्य शायरी
रात उस मिस से कलीसा में हुआ मैं दो-चार
हाए वो हुस्न वो शोख़ी वो नज़ाकत वो उभार