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कहानी
“मुझे मालूम है। वो दिन कौन सा है!”
शेरवानी में मल्बूस शख़्स ने एक एक लफ़्ज़ पर-ज़ोर देकर कहा।
अली इमाम नक़वी
ग़ज़ल
ऐसी हवा बही कि है चारों तरफ़ फ़साद
जुज़ साया-ए-ख़ुदा कहीं दार-उल-अमाँ नहीं
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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नज़्म
तौसी-ए-शहर
इस मक़्तल में सिर्फ़ इक मेरी सोच लहकती डाल
मुझ पर भी अब कारी ज़र्ब इक ऐ आदम की आल
मजीद अमजद
नज़्म
नींद प्यारी नींद
जिस को हम कभी आराम कहते कभी अम्न-ओ-सुकूँ
मैं उसी की काली ज़ुल्फ़ों का असीर
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
कट गई 'उम्र इसी एक तजस्सुस में मिरी
बज़्म-ए-आलम में कहीं अम्न का 'आलम न मिला