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नज़्म
नूर-जहाँ का मज़ार
दिन को भी यहाँ शब की सियाही का समाँ है
कहते हैं ये आराम-गह-ए-नूर-जहाँ है
तिलोकचंद महरूम
कुल्लियात
तर्क-ए-लिबास से मेरे उसे क्या वो रफ़्ता रानाई का
जामे का दामन पाँव में उलझा हाथ आँचल इक्लाई का
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
अजब सोहबत है क्यूँकर सुब्ह अपनी शाम करिए अब
जहाँ टुक आन बैठे हम कहा आराम करिए अब