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नज़्म
शिकवा
दर्द-ए-लैला भी वही क़ैस का पहलू भी वही
नज्द के दश्त ओ जबल में रम-ए-आहू भी वही
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था
नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था
अल्लामा इक़बाल
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नज़्म
ए'तिराफ़
बज़्म-ए-परवीं थी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैला-ए-नाज़ बरफ़्गंदा-नक़ाब आती थी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दो इश्क़
चाहा है इसी रँग में लैला-ए-वतन को
तड़पा है इसी तौर से दिल उस की लगन में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
पस-ए-पर्दा भी लैला हाथ रख लेती है आँखों पर
ग़ुबार-ए-ना-तवान-ए-क़ैस जब महमिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
नज़्म
ख़ून फिर ख़ून है
महमिल-ए-मज्लिस-ए-अक़्वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है दामन पे लपक सकता है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
कभी अपना भी नज़ारा किया है तू ने ऐ मजनूँ
कि लैला की तरह तू ख़ुद भी है महमिल-नशीनों में