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ग़ज़ल
हरगिज़ न मिरे महरम-ए-हमराज़ हुए तुम
आईने में अपने ही नज़र-बाज़ हुए तुम
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
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नज़्म
इशरत-ए-तन्हाई
आँख मजबूर नहीं है मिरी बीनाई से
महरम-ए-दर्द-ओ-ग़म-ए-आलम-ए-इंसाँ हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
सुनें न दिल से तो फिर क्या पड़ी थी ख़ारों को
कि गुल को महरम-ए-अंजाम-ए-रंग-ओ-बू करते
यगाना चंगेज़ी
नज़्म
पत-झड़
नहीं मैं महरम-ए-राज़-ए-दरून-ए-मय-कदा लेकिन
यही महसूस होता है कि हर शय कुछ दिगर-गूँ है