इशरत-ए-तन्हाई
मैं कि मय-ख़ाना-ए-उल्फ़त का पुराना मय-ख़्वार
महफ़िल-ए-हुस्न का इक मुतरिब-ए-शीरीं-गुफ़्तार
माह-पारों का हदफ़ ज़ोहरा-जबीनों का शिकार
नग़्मा-पैरा ओ नवासंज ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ हूँ मैं
कितने दिल-कश मिरे बुत-ख़ाना-ए-ईमां के सनम
वो कलीसाओं के आहू वो ग़ज़ालान-ए-हरम
मैं हमा-शौक़-ओ-मोहब्बत वो हमा-लुत्फ़-ओ-करम
मरकज़-ए-मर्हमत-ए-महफ़िल-ए-ख़ूबाँ हूँ मैं
मौजज़न है मय-ए-इशरत मिरे पैमानों में
यास का दर्द है कम-तर मिरे अफ़्सानों में
कामरानी है पर-अफ़्शाँ मिरे रूमानों में
यास की सइ-ए-जुनूँ-ख़ेज़ पे ख़ंदाँ हूँ मैं
मेरे अफ़्कार में महताब की तलअत ग़लताँ
मेरी गुफ़्तार में है सुब्ह की नुज़हत ग़लताँ
मेरे अशआर में है फूलों की निकहत ग़लताँ
रूह-ए-गुलज़ार हूँ मैं जान-ए-गुलिस्ताँ हूँ मैं
लाख मजबूर हूँ मैं ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई से
दिल है बेज़ार अब इस इशरत-ए-तन्हाई से
आँख मजबूर नहीं है मिरी बीनाई से
महरम-ए-दर्द-ओ-ग़म-ए-आलम-ए-इंसाँ हूँ मैं
क्यूँ न चाहूँ कि हर इक हाथ में पैमाना हो
यास ओ महरूमी ओ मजबूरी इक अफ़्साना हो
आम अब फैज़-ए-मय-ओ-साक़ी-ओ-मय-ख़ाना हो
रिंद हूँ और जिगर-गोश-ए-रिंदाँ हूँ मैं
अब ये अरमाँ कि बदल जाए जहाँ का दस्तूर
एक इक आँख में हो ऐश ओ फ़राग़त का सुरूर
एक इक जिस्म पे हो अतलस ओ कम-ख़्वाब ओ समोर
अब ये बात और है ख़ुद चाक-गरेबाँ हूँ मैं
- पुस्तक : Kulliyaat-e-Majaz (पृष्ठ 156)
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