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शेर
गर है दुनिया की तलब ज़ाहिद-ए-मक्कार से मिल
दीं है मतलूब तो इस तालिब-ए-दीदार से मिल
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
उम्र-ए-फ़ानी को हयात-ए-जाविदाँ समझा था मैं
थी ख़िज़ाँ जिस को बहार-ए-गुलसिताँ समझा था मैं
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
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ग़ज़ल
ख़ुद ही महबूब लिए अपना पयाम आया है
मंज़िल-ए-इश्क़ में ऐसा भी मक़ाम आया है
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
ग़ज़ल
कहाँ थे शब इधर देखो हया क्यूँ है निगाहों में
अगर मंज़ूर है रख लो मुझे झूटे गवाहों में