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ग़ज़ल
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
शिकवा
नग़्मे बेताब हैं तारों से निकलने के लिए
तूर मुज़्तर है उसी आग में जलने के लिए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम' जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
न जाने आरिबा क्यूँ आए क्यूँ मुस्तारबा आए
मुज़िर के लोग तो छाने ही वाले थे सो वो छाए