मुज़्तर हैदरी
ग़ज़ल 1
अशआर 10
ख़ुलूस हो तो कहीं बंदगी की क़ैद नहीं
सनम-कदे में तवाफ़-ए-हरम भी मुमकिन है
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कोई भी शक्ल मुकम्मल किताब बन न सकी
हर एक चेहरा यहाँ इक़्तिबास जैसा है
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महफ़िल में उन की खुल गया दिल का मुआमला
पलकों पे अश्क रह गए पीने के ब'अद भी
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झुकी झुकी जो है कड़वी-कसीली नीम की शाख़
उसी पे शहद का छत्ता दिखाई देता है
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कल रात मिरे दिल ने फिर चुपके से पूछा है
'मुज़्तर' तिरी आहों में आएगा असर कब तक
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