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ग़ज़ल
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी
जोश-ए-नशात हो चुका सौत-ए-हज़ार हो चुकी
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग
देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग
हिमायत अली शाएर
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नज़्म
नाला-ए-फ़िराक़
जा बसा मग़रिब में आख़िर ऐ मकाँ तेरा मकीं
आह! मशरिक़ की पसंद आई न उस को सरज़मीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर
फ़रिश्ते पढ़ते हैं जिस को वो नाम है तेरा
बड़ी जनाब तिरी फ़ैज़ आम है तेरा