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ग़ज़ल
ये जनाब-ए-शैख़ का फ़ल्सफ़ा है अजीब सारे जहान से
जो वहाँ पियो तो हलाल है जो यहाँ पियो तो हराम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
चश्म-ए-साक़ी से पियो या लब-ए-साग़र से पियो
बे-ख़ुदी आठों पहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी
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ग़ज़ल
पियो कि मुफ़्त लगा दी है ख़ून-ए-दिल की कशीद
गिराँ है अब के मय-ए-लाला-फ़ाम कहते हैं