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रशीद अहमद सिद्दीक़ी
1892 - 1977
लेखक
मैकश बदायुनी
1925 - 1989
शायर
अहमद मुस्तफ़ा सिद्दीक़ी राही
कुंदन मर गया और घंटे बजते रहे!कुंदन कॉलेज का घंटा बजाता था, मालूम नहीं कब से, कम-ओ-बेश 30-35 साल से, इतने दिनों से इस पाबंदी से कि इस तरफ़ ख़याल का जाना भी बंद हो गया था कि वो मर जायेगा या घंटा बजाने से बाज़ आजाएगा! तालिब इल्मी का ज़माना ख़त्म करके स्टाफ़ में आया तो ये घंटा बजा रहा था, उसी के घंटों के मुताबिक़ काम करते करते पूरी मुद्दत मुलाज़मत ख़त्म की, यूनिवर्सिटी से रुख़्सत हुआ तो उसे घंटे बजाते छोड़ा, घंटे की आवाज़ रोज़मर्रा के औक़ात में इस तरह घुल मिल गई थी जैसे वो कहीं बाहर से नहीं मेरे ही अंदर से आरही हो जैसे वो वज़ाइफ़ जिस्मानी के इन मामूलात में दाख़िल हो गई हो जिनका शऊरी तौर पर एहसास नहीं होता।
चारपाई और मज़हब हम हिंदोस्तानियों का ओढ़ना बिछौना है। हम इसीपर पैदा होते हैं और यहीं से मदरसा, ऑफ़िस, जेल-ख़ाने, कौंसिल या आख़िरत का रास्ता लेते हैं। चारपाई हमारी घुट्टी में पड़ी हुई है। हम इसपर दवा खाते हैं। दुआ' और भीक भी मांगते हैं। कभी फ़िक्र-ए-सुख़न करते हैं और कभी फ़िक्र-ए-क़ौम, अक्सर फ़ाक़ा करने से भी बा'ज़ नहीं आते। हमको चारपाई पर उतना ही ए'तिमाद है ज...
उनकी गोल छदरी दाढ़ी, उनकी बारीक आवाज़, उनकी छोटे ताल की ऐनक, बग़ैर फुंदने की तुर्की टोपी, घिसी पिसी चप्पल, मोज़ों से कोई सरोकार नहीं, मोटे खद्दर की मलगज्जी पैवन्द लगी कावाक सी शेरवानी जिस के अक्सर बटन टूटे या ग़ायब, हाथ में बद-रंग साजावट का एक झोला, दरी तकिया और मोटी चादर, मुख़्तसर बिस्तर, टेढ़ा मेढ़ा पुराना छोटा सा एक ट्रंक और तामलोट, ये थे हसरत।लेकिन किस क़यामत का ये आदमी था। महशर-ए-ख़याल नहीं मह्शर-ए-अमल। जिस बात को अपने नज़दीक हक़ समझता था उसको किसी बग़ैर तअम्मुल के, बग़ैर घटाए बढ़ाए, बग़ैर हमवार किए बग़ैर मस्लिहत या मौक़ा का इन्तिज़ार किए, बेसाख़्ता ज़बान, बग़ैर पलक झपकाए, मुख़ातब अफ़लातून हो या फ़िरऔन, उसके सामने कह डालना हसरत के लिए मामूली बात थी। ऐसा निडर, सच्चा, मोहब्बत करने वाला और मोहब्बत का गीत गाने वाला अब कहाँ से आएगा। किसी से न दबने वाला, हर शख़्स पर शफ़क़त करने वाला, ज़बान का फ़य्याज़, शाइरों का वाली, ग़ज़ल का इमाम, अदब का ख़िदमत गुज़ार। कैसी सच्ची बात एक अज़ीज़ ने कही कि सियासत कोयला का कारोबार है जिसमें सभी का हाथ और बहुतों का मुँह काला होता है सिवाए हसरत के।
अलीगढ़ में नौकर को आक़ा ही नहीं “आक़ा-ए-नामदार” भी कहते हैं और वो लोग कहते हैं जो आज कल ख़ुद आक़ा कहलाते हैं ब-मा'नी तलबा! इससे आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि नौकर का क्या दर्जा है। फिर ऐसे आक़ा का क्या कहना “जो सपेद-पोश” वाक़े हों। सपेद पोश का एक लतीफ़ा भी सुन लीजिए। आपसे दूर और मेरी आपकी जान से भी दूर एक ज़माने में पुलिस का बड़ा दौर दौरा था, उसी ज़माने में पुलि...
देहात में अरहर के खेत को वही अहमियत हासिल है जो हाईड पार्क को लंदन में है। देहात और देहातियों के सारे मंसबी फ़राइज़। फ़ित्री हवाइज और दूसरे हवादिस यहीं पेश आते हैं। हाईड पार्क की ख़ुश फ़े'लियाँ आर्ट या उसकी उ'र्यानियों पर ख़त्म हो जाती हैं, अरहर के खेत की ख़ुश फ़े'लियाँ अक्सर वाटर लू पर तमाम होती हैं। यूरोप की औरतों को हुक़ूक़ तलबी का ख़्याल बहुत बाद में...
हास्य और व्यंग्य असल में समाज की असमानताओं से फूटता है। अगर किसी समाज को सही ढंग से जानना हो तो उस समाज में लिखा गया हास्यात्मक, व्यंग्यात्मक साहित्य पढ़ना चाहिए। उर्दू में भी हास्यात्मक और व्यंग्यात्मक साहित्य की शानदार परंपरा रही है। मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी, पतरस बुख़ारी, रशीद अहमद सिद्दीक़ी और बेशुमार अदीबों ने बेहतरीन हास्यात्मक, व्यंग्यात्मक लेख लिखे हैं। रेख़्ता पर ये गोशा उर्दू में लिखे गए ख़ूबसूरत और मशहूर मज़ाहिया और तन्ज़िया लेखों से आबाद है। पढ़िए और ज़िंदगी को ख़ुशगवार बनाइऐ।
Jadeed Ghazal
ग़ज़ल तन्क़ीद
Aap Beeti Rasheed Ahmad Siddiqi
सय्यद माेईनुर्रहमान
आत्मकथा
Khutoot-e-Rasheed Ahmad Siddiqi
पत्र
Aashufta Bayani Meri
गद्य/नस्र
Ganjaha-e-Granmaya
Mazamin-e-Rasheed
लेख
Ghalib Ki Shakhsiyat Aur Shayari
आलोचना
ख़ंदाँ
आशुफ़्ता बयानी मेरी
हम नफ़सान-ए-रफ़ता
स्केच / ख़ाका
रशीद अहमद सिद्दीक़ी के ख़ुतूत
Ghalib Ki Shakhsiat Aur Shairy
Rasheed Ahmad Siddiqi
सुलैमान अतहर जावेद
विनिबंध
गवाह क़ुर्ब-ए-क़यामत की दलील है। अदालत से क़यामत तक जिससे मुफ़र नहीं वो गवाह है। अदालत मुख़्तसर नमून-ए-क़यामत है और क़यामत वसीअ पैमाने पर नमून-ए-अदालत। फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि अदालत के गवाह इंसान होते हैं और क़यामत के गवाह इंसानी कमज़ोरियां या फ़रिश्ते। बहरहाल अदालत को क़यामत और क़यामत को अदालत की जो शान-ए-इम्तियाज़ हासिल है, वो तमामतर गवाहों के दम से है। जैसा कि सुनते हैं आर्ट की नुमूद औरत की नुमाइश से है। गवाह ऐनी हो या समाई, रिवायती हो या पेशेवर, हरहाल में गवाह है, इसलिए हरहाल में ख़तरनाक गवाह झूटा हो या सच्चा अदालत के लिए उसका वुजूद इतना ही नागुज़ीर है जितना बर्तानवी इक़्तिदार के आई.सी.एस. का वुजूद, जिस तरह अदालत की कमज़ोरी गवाह है उसी तरह बर्तानिया की कमज़ोरी आई.सी.एस।
घाग (या-घाघ) की हयय्यत सौती-ओ-तहरीरी इसको किसी ता'रीफ़ का मोहताज नहीं रखतीं अल्फ़ाज़ के शक्ल और आवाज़ से कितने और कैसे-कैसे मा'ना अख़्ज़ किए गए हैं। लिसानियात की पूरी तारीख़ इसपर गवाह है। कभी-कभी तलफ़्फ़ुज़ से बोलने वाले की नस्ल और क़बीले का पता लगा लेते हैं। घाग की ता'रीफ़ मंतिक़ या फ़लसफ़ा से नहीं तजुर्बे से की जाती है। ऐसा तजुर्बा जिसे अ'क़्ल-मंद समझ लेता है...
मेरी ज़िंदगी में कोई ऐसा वाक़िअ: पेश नहीं आया जिस पर ये इसरार हो कि मैं उसे ज़रूर याद रखूं। मुझे अपने बारे में ये ख़ुशफ़हमी भी है कि किसी और की ज़िंदगी में कोई ऐसा वाक़िअ: पेश न आया होगा जिसका ताल्लुक़ मुझसे रहा हो और वो उसे भूल न गया हो। न भुलाए जानेवाले वाक़िआत आम तौर पर या तो तोब-तुन-नुसूह क़िस्म के होते हैं या ताज़ीरात-ए-हिंद के। बाक़ौल शख़्से, “यानी ग...
सभी कुछ है तेरा दिया हुआ सभी राहतें सभी कुल्फ़तेंकभी सोहबतें कभी फ़ुर्क़तें कभी दूरियाँ कभी क़ुर्बतें
ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गयालाख मजबूर हुए उन को पुकारा न गया
तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे 'मीर' की ग़ज़लें गा रहा हूँबहत्तर इन में छुपे हैं नश्तर जो सब के सब आज़मा रहा हूँ
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