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ग़ज़ल
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
और जो हम-साए हैं आवाज़ में मर जाते हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
न फ़िराक़ था न विसाल था रही इक तो बे-ख़बरी रही