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ग़ज़ल
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
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ग़ज़ल
'नाज़िर' मिरी शीरीनी-ए-गुफ़्तार में कुछ लोग
हालात की तल्ख़ी को डुबोने नहीं देते
मंज़ूर-उल-हक़ नाज़िर
नज़्म
तुम्हारे हुस्न के नाम
सलाम लिखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम
बिखर गया जो कभी रंग-ए-पैरहन सर-ए-बाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मयूरका
मयूरका के साहिलों पे किस क़दर गुलाब थे
कि ख़ुशबुएँ थी बे-तरह कि रंग बे-हिसाब थे
अहमद फ़राज़
नज़्म
ख़ुदा वो वक़्त न लाए
ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू
सकूँ की नींद तुझे भी हराम हो जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
शो'रा-ए-क़ौम से ख़िताब
ऐ शाइरान-ए-क़ौम ज़माना बदल गया
पर मिस्ल-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार तुम्हारा न बल गया
शाह दीन हुमायूँ
ग़ज़ल
सरापा हुस्न-ए-समधन गोया गुलशन की कियारी है
परी भी अब तो बाज़ी हुस्न में समधन से मारी है