गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर
गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर
ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी
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गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर
ऐ तेज़-रौ ग़ुबार-ए-सफ़र हूँ ज़रा ठहर
रक़्स-ए-नुमूद यक दो नफ़स और भी सही
दोश-ए-हवा पे मिस्ल-ए-शरर हूँ ज़रा ठहर
अपना ख़िराम तेज़ न कर ऐ नसीम-ए-ज़ीस्त
बुझने को हूँ चराग़-ए-सहर हूँ ज़रा ठहर
वो दिन क़रीब है कि में आँखों को मूँद लूँ
यानी हलाक-ए-ज़ौक़-ए-नज़र हूँ ज़रा ठहर
ऐ दोस्त मेरी तल्ख़-नवाई पे तू न जा
शीरीं मिसाल-ए-ख़्वाब-ए-सहर हूँ ज़रा ठहर
जिस राह से उठा हूँ वहीं बैठ जाऊँगा
मैं कारवाँ की गर्द-ए-सफ़र हूँ ज़रा ठहर
ऐ शहसवार-ए-हुस्न मुझे रौंद कर न जा
वामाँदा मिस्ल-ए-राहगुज़र हूँ ज़रा ठहर
ऐ आफ़्ताब-ए-हुस्न मिरी क्या बिसात है
दरयूज़ा-गर हूँ नूर-ए-क़मर हूँ ज़रा ठहर
मौहूम सी उमीद हूँ मुझ से गुरेज़ क्या
अपनी किसी दुआ का असर हूँ ज़रा ठहर
- पुस्तक : Range-e-Gazal (पृष्ठ 201)
- रचनाकार : shahzaad ahmad
- प्रकाशन : Ali Printers, 19-A Abate Road, Lahore (1988)
- संस्करण : 1988
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