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नअत
इक मैं ही नहीं उन पर क़ुर्बान ज़माना है
जो रब्ब-ए-दो-आलम का महबूब-ए-यगाना है
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
नुमायाँ दोनों जानिब शान-ए-फ़ितरत होती जाती है
उन्हें मुझ से मुझे उन से मोहब्बत होती जाती है
शकील बदायूनी
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ग़ज़ल
जोश-ए-वहशत में मुसल्लम हो गया इस्लाम-ए-इश्क़
कूचा-गर्दी से मिरी पूरा हुआ एहराम-ए-इश्क़