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शेर
जिस कू में हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
वो कूचा क्यूँके रू-कश-ए-चीन-ओ-चगिल न हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
हाँडी सा खदबदाए है कुछ इस जवाँ का मग़्ज़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
इस इश्क़ ओ जुनूँ में न गरेबान का डर है
ये इश्क़ वो है जिस में हमें जान का डर है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
कर के मुजरा शाह-ए-मर्दां की तरफ़ धाई बसंत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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ग़ज़ल
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
वीरान हैं मोहल्ले सुनसान घर पड़े हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
पछताए हम इस शाम-ए-ग़रीबाँ से निकल कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
मर जाऊँ प गुलशन की तरफ़ रू न करूँ मैं