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तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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    तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू करूँ मैं

    मर जाऊँ गुलशन की तरफ़ रू करूँ मैं

    गर ज'अद को सुम्बुल की सबा बेचने लावे

    ख़ातिर से तिरी क़ीमत-ए-यक-मू करूँ मैं

    पल्ले में तिरे हुस्न के गो हो वो गिराँ-तर

    यूसुफ़ को तिरा संग-ए-तराज़ू करूँ मैं

    यूँ दिल को गिरफ़्तार रखूँ सैद-ए-अलम में

    पर और का सैद-ए-ख़म-ए-गेसू करूँ मैं

    गर हूर-ओ-परी दिल को लुभावे मिरे कर

    वल्लाह कि उस पर कभी जादू करूँ मैं

    गर मर्सिया-ख़्वानी पे दिल आवे कभी मेरा

    तू होवे तो दाऊद को बाज़ू करूँ मैं

    हूँ बस-कि हवा-दार तिरी आतिश-ए-ग़म का

    फुंक जाए जो सीना तो कभू हू करूँ मैं

    यूँ देखूँ तो देखूँ किसी ख़ुश-वज़्अ को लेकिन

    ख़्वाहिश की नज़र बर-रुख़-ए-नेकू करूँ मैं

    बुलबुल की तरह गुल पे हूँ ज़मज़मा-परवाज़

    कुमरी की तरह सर्व पे कू कू करूँ मैं

    जब रात हो ज़ानू पे रखो अपने सर अपना

    पर तकिया-ए-सर ग़ैर का ज़ानू करूँ मैं

    मेहराब के काबे का नमाज़ी हूँ तो वाँ भी

    जुज़ सज्दा-ए-ताक़-ए-ख़म-ए-अबरू करूँ मैं

    जब तक खुलें मुझ से तिरे हुस्न के उक़्दे

    हरगिज़ हवस-ए-नाफ़ा-ए-आहू करूँ मैं

    हम-ख़्वाबा अगर होवे मिरी हूर-ए-बहिश्ती

    ईधर से उधर को कभी पहलू करूँ मैं

    कोई और तो कब मुझ को लुभा सकता है लेकिन

    डरता हूँ तसव्वुर से तिरे ख़ू करूँ मैं

    'मुसहफ़ी' है अहद कि जब तक वो गुल हो

    गुल-गश्त-ए-गुल सैर-ए-लब-ए-जू करूँ मैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(Vol-4)(pdf) (पृष्ठ 202)
    • रचनाकार : Ghulam hamdani Mashafi
    • प्रकाशन : Qaumi council baraye -farogh urdu (2005)
    • संस्करण : 2005

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