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नज़्म
रक़ीब से!
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
हिण्डोला
यहीं रुमूज़-ए-ख़िराम-ए-सुकूँ-नुमा सीखे
नसीम-ए-सुब्ह-ए-तमद्दुन ने भैरवीं छेड़ी
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दुनिया वालों के मंसूबे मेरी समझ में आए नहीं
ज़िंदा रहना सीख रहा हूँ अब घर की वीरानी से
मोहसिन असरार
ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
हम ने ताख़ीर से सीखे हैं मोहब्बत के उसूल
हम पे लाज़िम है, तिरा इश्क़ दोबारा कर लें