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शेर
मोहम्मद मुबशशिर मेयो
शेर
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
कभी इस से बात करना कभी उस से बात करना
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं
यक दम जो दरमियाँ में तिरी गुफ़्तुगू न हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
पलकें नदीदियाँ हैं आँखें ख़ुमारियाँ हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
दुनिया में मुझ सा कम है कोई सोगवार शख़्स
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
कहता है कि हरगिज़ मिरा ज़ुन्नार न टूटे
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
शेर
मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
आईना बीच में किस वास्ते दीवार है आज