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शेर
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
किनारों ने डुबोया है मुझे इस बात का ग़म है
दिवाकर राही
शेर
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
शेर
क़ाबिल अजमेरी
शेर
जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'
क्या कहिए कि जी में मेरे क्या क्या नहीं होता