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शेर
धीरे धीरे सर में आ कर भर गया बरसों का शोर
रफ़्ता रफ़्ता आरज़ू-ए-दिल धुआँ होने लगी
मुहम्मद याक़ूब आमिर
शेर
चुपके चुपके उठ रहा है मध-भरे सीनों में दर्द
धीमे धीमे चल रही हैं इश्क़ की पुरवाइयाँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
धारे से कभी कश्ती न हटी और सीधी घाट पर आ पहुँची
सब बहते हुए दरियाओं के क्या दो ही किनारे होते हैं
आरज़ू लखनवी
शेर
अलग अलग तासीरें इन की, अश्कों के जो धारे हैं
इश्क़ में टपकें तो हैं मोती, नफ़रत में अंगारे हैं
अजमल सिद्दीक़ी
शेर
अपनी ज़िंदगानी के तुंद-ओ-तेज़-रौ धारे
कुछ मिज़ाज-ए-दिलबर की बरहमी से मिलते हैं