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शेर
जो समझते थे हमीं से रौशनी दुनिया में है
वक़्त ने बे-वक़्त उन को रख दिया है ताक़ पर
राघवेंद्र द्विवेदी
शेर
भला क्या ता'ना दूँ ज़ुहहाद को ज़ुहद-ए-रियाई का
पढ़ी है मैं ने मस्जिद में नमाज़-ए-बे-वज़ू बरसों
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
इस तरह बे-कैफ़ गुज़रा ऐ 'हबीब' अपना शबाब
जिस तरह से सूने घर में जलता है कोई चराग़
जयकृष्ण चौधरी हबीब
शेर
हिदायत शैख़ करते थे बहुत बहर-ए-नमाज़ अक्सर
जो पढ़ना भी पड़ी तो हम ने टाली बे-वज़ू बरसों