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शेर
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
शेर
कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी काबा तो कभी ख़ानक़ाह
ये तिरी तलब का जुनून था मुझे कब किसी से लगाव था
शमीम अब्बास
शेर
जिसे इशरत-कदा-ए-दहर समझता था मैं
आख़िर-ए-कार वो इक ख़्वाब-ए-परेशाँ निकला
आग़ा मोहम्मद तक़ी ख़ान तरक़्क़ी
शेर
तिश्नगी ही तिश्नगी है किस को कहिए मय-कदा
लब ही लब हम ने तो देखे किस को पैमाना कहें
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
किसी इक-आध मय-कश से ख़ता कुछ हो गई होगी
मगर क्यूँ मय-कदे का मय-कदा बद-नाम है साक़ी
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
तौबा कर लूँ तो कभी मय-कदा आबाद न हो