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शेर
हर्फ़-ए-इंकार है क्यूँ नार-ए-जहन्नम का हलीफ़
सिर्फ़ इक़रार पे क्यूँ बाब-ए-इरम खुलता है
वहीद अख़्तर
शेर
तह-ए-आरिज़ जो फ़रोज़ाँ हैं हज़ारों शमएँ
लुत्फ़-ए-इक़रार है या शोख़ी-ए-इंकार का रंग
अली सरदार जाफ़री
शेर
शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
अपने दिल को सख़्त कर के रिश्ता-ए-इंकार तोड़