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शेर
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
मजनूँ हो शाद क्यूँ न ग़ज़ालों को देख कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
इक अर्ज़ सब सीं छुप कर करनी है हम कूँ तुम सीं
राज़ी हो गर कहो तो ख़ल्वत में आ के कर जाँ
आबरू शाह मुबारक
शेर
क्यूँ न आ कर उस के सुनने को करें सब यार भीड़
'आबरू' ये रेख़्ता तू नीं कहा है धूम का
आबरू शाह मुबारक
शेर
दिवाने दिल कूँ मेरे शहर सें हरगिज़ नहीं बनती
अगर जंगल का जाना हो तो उस की बात सब बन जा
आबरू शाह मुबारक
शेर
वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त
क्यूँ न मरक़द पर करे दूद-ए-चराग़-ए-शाम रक़्स