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ग़ज़ल
रात के सन्नाटे में 'क़ासिम' कान लगे दरवाज़े को
और गली में आहिस्ता से बढ़ता शोर खड़ाऊँ का
क़ासिम हयात
ग़ज़ल
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
कहानी
मोहम्मद अहसन फ़ारूक़ी
तंज़-ओ-मज़ाह
सय्यद आबिद अली आबिद
रुबाई
ख़त्त-ए-आज़ादी लिखा था शोख़ ने फ़र्दा ग़लत
दिल में रखता और कुछ ज़ाहिर लिखा इंशा ग़लत
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
शेर
तिरी आवाज़ को इस शहर की लहरें तरसती हैं
ग़लत नंबर मिलाता हूँ तो पहरों बात होती है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
फिर तो इस बे-नाम सफ़र में कुछ भी न अपने पास रहा
तेरी सम्त चला हूँ जब तक सम्तों का एहसास रहा