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पाद शाहज़ादी अंदलीब

मोहम्मद हुमायूँ

पाद शाहज़ादी अंदलीब

मोहम्मद हुमायूँ

MORE BYमोहम्मद हुमायूँ

    स्टोरीलाइन

    एक सिपाही ज़ादे की कहानी जिसने एक मग़्विया पाद शाहज़ादी को महल वापस लाने का अज़म किया और मुहैय्यर अलाक़ोल मंज़िलों से गुज़रता गया और आख़िर में जब मंज़िल के क़रीब पहुंच गया तो।।

    हिस्सा अव्वल

    अज़ीज़ान-ए-जहाने पर ख़ूबाँ ख़ूब कान धर कर सुनो।

    रात को ये फ़क़ीर एक लुक-ओ-दिक़, सहराए पर वबा में जा पहुंचा वुसअत जिसकी मैदान ख़्याल से भी कहीं ज़्यादा थी। हद-ए-नज़र तक इस ख़राबे में रेग पुर-ख़ार।। जहां क़दम पड़े, कांटा गड़े। जानना चाहिए कि इस रेत का रंग सबज़ था और इस दश्त-ए-बे-कराँ में पहाड़ नुमा टीले कुछ यूं थे कि उन पर नक़्श हाय रोष अफ़ई जा बह जा सब्त थे जिसे देख गुमान यूं होता था जैसे ये सहरा हो बल्कि पर क़हर साँपों का एक शहर-ए-बेमेहर हो, धड़का जहां मौत का हर पहर हो। मुख़्तसर बयान तो ये है कि इस मुक़ाम ख़तरात-ओ-आफ़ात में आदम आदम की ज़ात।। मस्कन जिन्नात-ओ-बलीयात। ता हद-ए-इमकान वहां बिछा दाम। फ़रेब-ओ-शुबहात

    अज़ीज़ो बातमीज़ो!

    जब मैंने इस दश्त-ए-सबज़ रेग को देखा तो मुझ पर ख़ौफ़ ने ग़लबा ऐसा पाया कि क़दम मेरे बोझल हो गए और बदन पर लर्ज़ा तारी हुआ कि बे-शक इस मुक़ाम की हैबत हज़ार इफ़रीयतों से ज़्यादा थी। सोए आसमाँ देख, अपने औसान बहाल करकर सहरा में दाख़िल होने से पहले मैंने अल्लाह का नाम लिया कि वो कायनात का ख़ालिक़-ओ-मालिक है और हर नामूस की हिफ़ाज़त का ज़ामिन है। इस अमर से आजिज़ के दिल को तक़वियत बेपनाह मिली और यूं मैंने अपने घोड़े को सहरा की हद से पहले जंगल में खुला छोड़, इस में पहला क़दम रखा।

    बमोजाब फ़रमाने के जुनूब की जानिब दस कोस चल कर मुंतज़िर रहा कि रात गहरी हो तो सितारों की रहनुमाई से मीनारे फ़लक आसार के मुक़ाम का तअय्यन कर कर उसे मफ़क़ूद से मौजूद लाउं, इस में आवेज़ां ज़ीना हयात पर चढ़ कर तिलसम हो शरबा के इस बुरज की कलीद हासिल करूँ जहां रिहाई से मायूस गुल नुमा पाद शाहज़ादी अंदलीब महबूस थी और जिस पर चुड़ेलों और परीज़ादों का कड़ा पहरा था। इरादा फ़क़ीर का ये था कि उसे वहां से रिहाई दिलवा, सुलतान आलीशान के महल पहुंचा, हासिल मक़दूर इनाम पाउं।

    दस रोज़ क़बल किस्तान देव ने, जो मलिका हैरत की बहन बहार जादू का मोतमीदे ख़ास था और ज़ुलम में साहिब इख़तिसास था, गुल सूरत पाद शाहज़ादी अंदलीब को रात के पिछले-पहर, जब अल्लाह की मख़लूक़ नींद की आग़ोश में बेहोश या शब ख़ेज़ इबादत में मशग़ूल सज्दा-रेज़ थी, महल हज़ार दरीचा के याक़ूती दरवाज़े से बुज़ूर-ए-सहरसा मरी उठा लिया। ये जा वो जा, सानियों में सुलैमानी क़ालीन पर बिठा, तिलसम होश रुबा की शुमाली सरहद में संगलाख़ पहाड़ों के लामतनाही सिलसिले में एक वसीअ अरीज़ महल के एक बृज-ए-बेरहम में क़ैद किया।

    पाद शाहज़ादी अंदलीब जो गरम कमरों, रोशन फानूसों, अंबरीं शामोओ, मख़मलें क़ालीनों, रेशमी पर्दों, नरम मसहरियों और मुलाइम तकीयों की आदी थी इस संगीन हिसार की तारीकियों और सऊबतों से घबराई, तड़पी, तिलमिलाई और बे-अंदाज़ा दिल गीर हुई मगर क़हर दरवेश बरजान दरवेश ।। क़िस्सा मुख़्तसर रूबा गिर्ये, सर झुका, राज़ी तक़दीर हुई।

    बे-शक उसने गिर्ये-ओ-ज़ारी की पर अबस की कि ना तो इस की हालत-ए-ज़ार का किसी को पता चला और ना ही पाद शाहज़ादी को उनकी ना-गुफ़्ता बह हालत की ख़बर हुई जो उस की जुदाई में रंजीदा, रंग-ए-रो चूँ ताइर पुरीदा, दामन-ए-सब्र-ओ-ज़बत कशीदा, गरेबाँ-दरीदा, अज़ीं मसाइब बेहद तर सय्यदा, तड़पे, दिल गीर हुए, इस सबब रंजूर हुए और तिलमिला कर गिर्ये-ओ-ज़ारी पर मजबूर हुए।

    बैत

    ना ख़बर मी रसद मिरा अज़ इशान

    ना बदेशान हमी रसद ख़बरम

    तो देव ने जहां गुल सूरत पाद शाहज़ादी को महसूर किया, वहां उस की बाज़याबी का हर सबब भी हत्तलमक़दूर दूर किया और महल के चारों तरफ़ मुस्तइद जिनों, चुड़ेलों और परीज़ादों को पहरे पर मामूर क्या। इन सबकी सरदार घाजन चुड़ैल थी जो हद दर्जा बदख़स्लत, बदकिरदार और मक्कार थी। इस से बढ़कर वो हमावक़त बेदार, पहरे में होशयार और वास्ते किशत-ओ-ख़ून के हर-दम तैयार थी।

    मुबर्हन रहे कि इस मुक़फ़्फ़ल बुरज की दो कलीदें थीं। एक सालिम, जो किस्तान देव के गले में तिलसमी धागे से बंधी थी और दूसरी मुनक़सिम। सानी अलज़कर कलीद का एक हिस्सा जंगलों, सहराओं और सरनगूँ के इस पार मीनार फ़लक आसार में था जबकि दूसरा हिस्सा शहर मर्दगाँ के गोरिस्तान में था। आजिज़ मुनक़सिम कलीद के हुसूल में बरसर पैकार था कि अव्वल अलज़कर के हुसूल का ख़्याल भी बेकार था।

    मरदान बा-सफ़ा!

    जान लो कि नौ दिन पहले नीशापूर के वाली ने हम सबको हुक्म दिया कि इस के वास्ते दो उमूर फ़िलफोर अंजाम दिए जावें अव्वलन ये कि मुल़्क तूरान के शहनशाह को सुलतान ईरान का फ़रमान पहुंचा दिया जावे और इस को इताअत पर मजबूर करके इस से ख़राज बे-हिसाब लिया जावे और सानियन ये कि किस्तान देव की क़ैद में महबूस पाद शाहज़ादी को रिहा किया जावे।

    वाली नीशापूर यूसुफ़ बिन सिकन्दर तिरमिज़ी, ख़ुदा उन पर अपनी रहमत तमाम करे, ने बतलाया कि पाद शाहज़ादी के वालिद और सुलतान ईरान वख़वारज़म अपनी बेटी के हिजर में निढाल हैं और जब से वो इस मलऊन देव के क़बज़े में है उसी लम्हे से बदहाल हैं। कम आमेज़ हैं, शब ख़ेज़ हैं और अल्लाह के हुज़ूर पैहम सज्दा-रेज़ हैं। खाने की ख़बर आराम का ख़्याल और ऐन-मुमकिन है इस हालत एहज़न-ओ-हैजान में ये आदिल सुलतान अपनी जान दे दे तो है कोई जो इस मुहिम को लो जाहिल्ला तआला सर अंजाम दे और यूं सुलतान के दिल को क़रार आजाए कि बे-शक इमाम कौन मकानﷺ ने फ़रमाया और बिला शुबहा उन्होंने तो हमेशा सच्च ही फ़रमाया।

    ”अल्लाह-तआला उस वक़्त तक अपने बंदे के काम में (मदद करता)रहता है जब तक बंदा अपने मुस्लमान भाई के काम में मदद करता रहता है।

    हम में जो कमज़ोर दिल थे और बुज़दिल थे उन्होंने दूसरे काम को अंजाम देने से हद दर्जा इजतिनाब बरता मगर आजिज़ ने, जो इन सब में ज़्यादा ज़हीन-ओ-फ़तीन-ओ-मतीन था, ख़तरों से हरगिज़ घबराता था और मुहिम जोई का भी अज़-हद शौक़ीन था, दूसरे काम का बीड़ा उठाया और इसी सबब वादी-ए-तिलिस्म-ए-होशरुबा की राह ली।

    फ़क़ीर ने चर्चा अलबत्ता पाद शाहज़ादी के हुस्न का यूं सुन रखा था कि जवान थी, तवील क़ामत थी और नाज़ुक इंदाम थी। इस परी रु का चेहरा किताबी और सुर्ख़ी माइल रुख़्सार गुलहाए बहार थे। आरिज़-ए- पुरनूर ख़लक़ से मस्तूर, गोया जाम-ए-शराब था कि बादा गुल-रंग से पर बे-हिसाब था। इस के दाँत मोतीयों मशाबेह, होंट याक़ूत, मुँह नून का नुक़्ता और कुंज-ए-दहन पर ख़ाल मशकीन ऐसा जो दिलों को मोह ले

    आँखें उस परी पीकर की चश्म-ए-आहू से कहीं तेराह तर थीं। मसगान लंबे जारोब रुख़्सार, आबरूएं पर ख़ुमार गोया दो शमशीरें ब्रहना आबदार, जैसे दो गनबद ख़ूबसूरत पायेदार, या दो साग़र-ए-मय मक़लूब, गोया नीम कश दो कमान, जैसे जोड़ा क़ौस-ए-क़ुज़ह का रंग ब-रंग, या दो दरिया खम बा ख़म या जैसे लबान शीरीन गुल रोयान।

    इस के बाल तवील रेशमी स्याह जैसे शब-ए-दीजूर, मांग सीधी ताबां जैसे वुसअते समा में कहकशां। इस नाज़नीन ख़ंदा जबीन की गर्दन लंबी सुराही-दार थी, कमर अलिफ़ सूरत, ख़ालिक़ के तख़लीक़ का शाहकार थी और हाथ सीमीं ऐसे कि जो किसी शैय को छू लें तो वो सोना बने।

    क़दम ऐसे जैसे बाद-ए-ख़ुनुक, सुबुक रफ़्तार जैसे मौज-ए-हवा पर सवार, सांस ऐसी कि अज़ जान-ए-रफ़्ता लोगों में जान डाल दे। गर्ज़ ये कि पूरा वजूद गोया नसीम-ए-सहर का मोअत्तर झोंका, जो लहर-लहर आते शब गिरिफ़ता, दर्दमंद, पर हैजान-ओ-पुर-आशोब, आज़ुर्दा हज़ें और रो बह गिर्ये दिलो को क़रार बे शुमार दे।

    आराइश-ए-जमाल में लासानी उस परीवश का लिबास बेदाग़ और बे शिकन था, जिस्म से चिपका जैसे जुज़ु बदन था। गर्दन में ज़ंजीर तिलाई जिसमें जुड़ा नग याक़ूती, कानों में आवेज़े सीमीं, हाथों पर तहरीर हिना की मौहूम और अंगुश्त हलक़ा में ख़त्म मरजान। पाव में पाज़ेब नुक़रई सुबुक, जूते तावस के परों से बने इस से कहीं सुबुक-तर।

    अज़ीज़ो इस की बातों का सहर ऐसा लाजवाब था कि सराब नख़लिस्तान बने और नख़लिस्तान सराब, आब शराब हो, आलम-ए-बेदारी ख्वाब हो और मुसख़्ख़र आफ़ताब हो। जो गुफ़्तगु करे तो मौसीक़ी से इस के पहाड़ वज्द में आजाऐं, तुयूर दम-ब-ख़ुद परवाज़ से बे-ख़बर गिर पढ़ें और ख़लक़ अंगुश्त बदंदाँ , मुतहय्यर, तस्वीर सूरत, सांस लेना भूल जाये।

    अबयात

    तुझ लब की सिफ़त लाल बदख़शाँ सूँ कहूँगा

    जादू हैं तेरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा

    इक नुक़्ता तिरे सफ़ा रुख पर नईं बेजा

    इस मुख को तिरे सफ़ा क़ुरआँ सूँ कहूँगा

    इस पर मुस्तज़ाद वो माह-ए-तलअत इल्म-ए-शेअर में ताक़, ज़कावत-ओ-दानाई में यकता, तर्ज़-ए-तकल्लुम में फ़क़ीद उल-मिसाल, जवाब और रद्द उल-जवाब में बेमिसल, तर्ज़-ए-नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त में बेनज़ीर, जुमला आदाब-ए-महफ़िल में यगाना मिसाल, ग़व्वसी और शहसवारी में लाजवाब, शमशीर ज़नी, तीर अंदाज़ी-ओ-दीगर फ़ुनून-ए-हर्ब में मुनफ़रद और मुसव्विरी में लासानी थी।

    मुख़्तसर ये कि अगर बयान उस ज़ुहरा जबीन का तफ़सील से गोश गुज़ार करूँ तो ख़ुफ़ता दिल-ए-बेदार करूँ और बे शक इस सई में जो हद दर्जा भी इख़तिसार करूँ तो सारे जहान की स्याही तसर्रुफ़ में लाउं और ख़त्म काग़ज़ के अंबार करूँ। इसी सबब उस गुल रुख़, नाज़ुक बदन, परीपीकर, फ़ित्ना-ख़ेज़, ख़ुश शक्ल-ओ-कम अमीज़ नाज़नीन-ए-मह जबीन को पा लेने की ख़ाहिश इस आजिज़ के दिल में एक अर्से से पलती थी। अब जब ये मौक़ा देखा तो दिल में ख़्याल आया कि क्यों पाद शाहज़ादी को किस्तान देव की क़ैद से छुड़ा कर सुल्तान-ए-ईरान-ए-आली मुक़ाम के पास पहुंचा दूं।

    तब तो ये ख़्याल भी दिल में रासिख़ हुआ कि ऐन-मुमकिन है सुलतान इस ख़िदमत से राज़ी-ओ-ख़ुश हो कर वलाएत और पाद शाहज़ादी आजिज़ के हवाले करके ख़ुद कुंज-ए-मस्जिद में बैठ जाये और जहां अपनी आक़िबत सँवारे वहां मेरी दुनिया भी और कोई बईद नहीं कि इस अमर से आजिज़ के दिन फिर जावें। साथ साथ इस से अलबत्ता ख़ल्क़-ए-ख़ुदा को भी फ़ायदा बे-हिसाब पहुंचे कि भला इस से ज़्यादा अवामुन्नास की ख़िदमत का और क्या मौक़ा मिले कि मैं अदल से उनके बीच हुक्म करूँ और उन पर मेरा तसल्लुत बे-अंदाज़ा हो। बे-शक मुतलक़ उल-अनान और आदिल सुलतान तो अल्लाह का साया है इसी बहाने से फ़क़ीर के दीन और दुनिया दोनों सँवर जाएं कि बे-शक ख़लक़ की ख़िदमत में अल्लाह ने जन्नत के दरवाज़ों की कुंजियाँ पिनहां रखें हैं।

    मिलना मुसव्विर मसऊद शीराज़ी से और मुहिम की हक़ीक़त को समझना

    इसी ख़्याल में गुम आजिज़ सो गया। ख्वाब में बशारत मिली कि सेस्तान में एक मुसव्विर कि इस का नाम मसऊद शीराज़ी है ,के पास जाउं जो मुझे इस मुहिम के मुताल्लिक़ तफ़ासील बता देगा। अगले रोज़, दिन चढ़े सफ़र का आग़ाज़ किया और हर्ज मर्ज़ खींचता सेस्तान जा पहुंचा। कुछ इस्तिफ़सार, कुछ रहनुमाई और फिर जामा मस्जिद की उक़बी गली में मसऊद शीराज़ी से रूबरू मुलाक़ात की जिसने मुझे ये बताया।

    ”ए हुस्न के बेटे ये जान ले कि ये मुहिम कि जिसका तू इरादा मुसम्मम बाँधे है, अपनी तरकीब में यकता है पस लाज़िम तो ये है इस की तदबीर भी मुनफ़रद और मुख़्तलिफ़ की जावे कि यही इन्साफ़ का तक़ाज़ा है। पहली बात ये अज़बर कर ले जिस कठिन मुहिम में भी तू अपनी जान खपाए देख ले कहीं ये मुहिम ना-मुम्किनात में से तो नहीं कि ला हासिल की जद्द-ओ-जहद क़रीन-ए-मस्लहत-ओ-अक़ल नहीं, नीज़ वक़्त का ज़या भी है। अगर मुहिम नामुमकिन नहीं, तो ख़ाह कितनी भी मुश्किल क्यों नहीं हो, अगर जुस्तजू की जावे और अल्लाह की मर्ज़ी शामिल-ए-हाल हो तो कामयाबी ज़रूर तुम्हारे क़दम चूमे

    मैंने नामुमकिन मुहिम की तफ़ीसर चाही तो अबदुल्लाह बिन उसमान का वाक़िया सुनाया जो दर्ज जे़ल करता हूँ।

    रूदाद अबदुल्लाह बिन उसमान की और नामुमकिन मुहिम की तफ़सीर

    ”अबदुल्लाह बिन उसमान बस्रा में इतने नामी गिरामी आलिम थे कि ख़लीफ़ा वक़्त तक उनको जानते थे और उनके इल्म पर तौक़ीर से बनफ़स नफ़ीस इस्तिफ़ादा किया करते थे। एक दिन बे-ख़याली में एक कूचे से आपका गुज़र हुआ कि दफ़्फ़ातन एक मुग़न्निया की आवाज़ ने ज़ंजीर बन कुरान के क़दम जकड़ लिए और बे-शक इस आवाज़ की हलावत तो ऐसी थी जैसे किसी ने कानों में अंगबीन घोल दी हो।

    एक कैफ़ियत-ए-मदहोश में वो इस घर के सामने आन खड़े हुए जहां से ये सदाए शीरीं मानिंद अंग्बीं आरही थी। कानों में रस घोलती इस आवाज़ की चाशनी से मजबूर आपने नाचार दरवाज़े पर दस्तक दी और अंदर आने की ख़ाहिश ज़ाहिर की जिस पर वो दर बस्ता यक-दम वा हुआ। जब आप अंदर दाख़िल हो गए तो बस जैसे बे-ख़ुद हो गए।

    मुग़न्निया शक्ल-ओ-सूरत से भी उतनी ही हसीन थी कि जितना सुरूर उस की आवाज़ में था। आपने मक़सद आने का बयान करना चाहा लेकिन ख़ुश शक्ल मुग़न्निया ने शहादत की उंगली अपने होंटों पर रख, उन्हें इशारे से कलाम करने से रोक दिया और फिर अपनी ख़ूबसूरत आँखों के ख़फ़ीफ़ इशारे और लब-ए-लालीं पर मुस्कान सजाये उनको हुज्रा रक़्स में अंदर आने का इंदीया दिया। आप अंदर चले आए।

    हुज्रा रक़्स में नरम क़ालीन बिछा था जिस पर दफ़, तार, दीवान, सुतूर, तंबूर ग़रज़ हर किस्म का आला मौसीक़ी मौजूद बमुताबिक़ दस्तूर था

    मुग़न्निया ने सिलसिला वहीं से गुना का सिलसिला जोड़ा जहां से मुनक़ता हुआ था।

    रुबाई

    किस मुश्किल इसरार अजल रा नक्शाद

    कुसैक क़दम अज़ दाएरा बैरूं ना निहाद

    मन मी करम ज़ मुबतदीता उस्ताद

    अजुज़ अस्त बह दस्त हर कि अज़ मादर-ज़ाद

    रुबाई ख़त्म हुई तो गुल सूरत मुग़न्निया ने अपना सामान मौसीक़ी लपेटा और हज़रत से आने का मक़सद दरयाफ़त किया। आपने ब-सद मितानत यूं कलाम फ़रमाया।

    ”बजुज़ उस के कि आपकी सदाए शीरीं ने क़दम मेरे जकड़ लिए और यूं अब आपकी आवाज़ के सहरका क़ैदी हूँ, कुछ नहीं। क्या कोई तरीक़ है कि वास्ते इस असीरी के कुछ तात्तुल पाउं?

    इस पर वो माहलिक़ा मुस्कुराई।

    ”बे-शक आप इस आलम में यकता एक आलिम हैं और कोई मद-ए-मुक़ाबिल आपका है नहीं कि आपको पिछाड़ सके फिर एक मुग़न्निया की आवाज़ क्यूँ-कर आपको सेहर-ज़दा करे? हज़रत ये नुक्ता तो तफ़सीर तलब है।

    आपको मज़ीद कुछ सूझा कुछ सोच कर हालत-ए-कश्मकश में निकाह की दरख़ास्त कर डाली। मुग़न्निया ने जवाब दिया तो रिदाए ख़जालत ओढ़े,जाने की इजाज़त तलब की।

    इस पर ख़ंदा जबीं लब-ए-लालीं काटते यूं गोया हुई।

    ”ए उसमान के बेटे क्या मैं आपसे एक सवाल पूछने की जसारत कर सकती हूँ?

    हज़रत ने इस्बात में सर हिलाया तो इस गुल बहार ने यूं इस्तिफ़सार किया

    ”मौत की हक़ीक़त क्या है और इस भेद से क्योंकर पर्दा उठे ? अगर ये मुअम्मा हल हो जाए तो मैं उसे अपना महर निकाह समझ लूं यूं आप को असीरी से नजात और आप की कनीज़ को सरवर हयात मिले।

    हज़रत ने नफ़ी में सर हिलाया और मौत के राज़ से अपनी लाइलमी का इज़हार किया और वहां से चल दिए। घर आकर हज़रत बहुत देर तक इसी सवाल और इस महए-जबीन के ख़्याल में गुम रहे पर फिर अपने तईं कहने लगे कि अब तो उस वक़्त ही इस को शक्ल दिखाउं जब इस सवाल का जवाब निकालूं, महर निकाह दूं और ज़िंदगी के मज़े उठाउं। तो सुनो उन्होंने बाक़ी तमाम उम्र सई की कि किसू तरीक़ से इस घुत्थि को सुलझाईं , मौत का मुअम्मा कामिल हल हो और हासिल उन्हें इस मुग़न्निया की क़ुरबत का हर पल हो।

    साहब-ए-हासिल बलाफ़ासिल, सय्यद हुसैन करमानी ने लिखा कि फिर तो हज़रत ने गोया मौत की घुत्थि को सुलझाने की ठान ली। मुल्क मुल्क का सफ़र किया, कोना कोना छान मारा और हर आलम से सलाह ली,विले इस सर बस्ता राज़ से पर्दा उठा सके और कैसे उठाते ? ये तो असरार-ए- इलाही था कि जिसका पाना बिलकुल ना-मुम्किनात में से था और इसी आलम में हालत पीरी, नातवानी, बे कसी , ज़ोफ़, अजुज़-ओ-इज़मिहाल और तजर्रुद में हज़रत का विसाल हो गया।

    ये कह कर मसऊद शीराज़ी ने, अल्लाह उन पर अपनी नेअमतें तमाम करे, फ़रमाया:

    ”तो सुनो हुस्न के बेटे!

    अबदुल्लाह बिन उसमान ने ऐसी मुहिम का बीड़ा उठाया जिसकी तकमील किसी सूरत भी मुम्किन नहीं थी कि बे-शक मौत इसरार इलाही है, राज़ मस्तूर है, इस ख़बर की पहुंच बंदों से दूर है और तहक़ीक़ ये राज़ है आलम अमर का जो अल्लाह के इलम क़दीम की गिरिफ़त में तो मुकम्मल तौर पर है, इन्सान को जानने का इज़्न नहीं और कोई शख़्स नहीं जानता कि वो कब और किस ज़मीन में मरेगा तावक़तीके वो अपने अजल को ख़ुद देख चुक।

    बैत

    ज़िंदगी इक सवाल है जिसका जवाब मौत है

    मौत भी इक सवाल है जिसका जवाब कोई नहीं

    फिर वास्ते सांस लेने रुके और सिलसिला कलाम जारी रख, यूं इरशाद फ़रमाया:

    ”बेशक अल्लाह अलीम है , ख़बरदार है और हम बस किसी दर्जे में आलम सौ लाज़िम है कि ऐसी हर कोशिश से हज़िर किया जावे जो ला-हासिल हो कि नाकामी उस का मुक़द्दर है। तो अब जब ये तय है कि तेरी ये जुस्तजू लाहासिल नहीं, तो ये भी जान ले कि जो लाहासिल नहीं इस में अपना वक़्त और ताक़त सर्फ़ करने से पहले ये ज़रूर देख ले आया ये मुहिम, जिसमें तू जान खपाता है इस काबिल भी है कि तू इस की तकमील करे। ये इस वास्ते कि तेरे ऊपर जबर नहीं कि जिसे पाना तेरे इख़तियार में है, उसे लामुहाला हासिल ही किया जावे। जान लो सिर्फ वही काम करने लायक़ हैं जिनका मक़सद बुलंद है और आगाह रहो सिर्फ वही मक़सद बुलंद-ओ-पर तौक़ीर है जिसकी नज़ीर हो।

    मैंने बेनज़ीर मक़सद की तफ़सीर तलब की तो एक हिकायत बयान की जो ज़बत तहरीर में लाता हूँ।

    हिकायत ताहिर बिन मुहम्मद नजदी के किताब लाजवाब की।

    “ताहिर बिन मुहम्मद नज्दी सामानी दौर के एक अज़ीम आलम और मुफ़स्सिर थे। आपने सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा के वास्ते एक किताब मंजूम नमाज़ की तर्तीब पर लिखने का उर्दा क्या, दिन रात एक किए और अल्लाह ने उन्हें इस मक़सद में सरफ़राज़ किया।

    ये लिखा आया है कि आपने अपने विसाल के दिन ही इस किताब को मुकम्मल किया।

    आपके विसाल का वाक़िया भी अजीब है जो आपके शागिर्द अमरो बिन मुस्लिम तहामी ने अपने रिसाले में नक़ल किया और लिखा कि शेख़ ने रोज़-ए-विसाल बाद अज़ अस्र अपनी किताब अस्सलातु खैरुन मिनन्नौम के आख़िरी बाब के आख़िरी जुमले रक़म ही किए थे कि आपके दरवाज़े पर दस्तक हुई।

    आपकी ज़ौजा मुहतरमा ने दरवाज़ा नीम वाह किया तो उन्हें दो आदमी, क़द्द बुलंद एक चार हथियार बाँधे और दूसरा हाथ में एक किताब मुजल्लद पकड़े, दरवाज़े के सामने खड़े नज़र आए। उन्होंने नज़रें झुकाए, बह पास-ए-अदब, हज़रत के मुताल्लिक़ दरयाफ़त किया, उनसे मिलने का इश्तियाक़ ज़ाहिर किया और अंदर आने की इजाज़त बसद-ए-एहतिराम तलब की और फिर ख़ामोश खड़े हो गए। इन की मनकूहा ने क़दरे हिचकिचाहट से, ओट लेकर उनको अंदर आने की इजाज़त मर्हमत फ़रमाई। वो अंदर चले आए।

    वो दोनों हज़रत के सामने बा-अदब खड़े हो गए और फिर उस शख़्स ने, जिसके हाथ में किताब थी, हज़रत को बसद ताज़ीम सलाम किया और उन्हें मुख़ातब कर कर यूं कलाम किया।

    ”ए ताहिर, ज़ूलजलाल आपके दर्जात बुलंद करे, क्या ये किताब आपने लिखी है ?

    आपने देखा तो दंग रह गए कि आपकी ताज़ा तसनीफ़ जिसके आख़िरी जुमले आपने अभी अभी रक़म किए थे उनके हाथ में बैन दफ़तीन कामिल मौजूद थी।

    आप पर घबराहट तारी हो गई और आपने ख़्याल किया कि शायद इस काविश की तसनीफ़ में कोई कोताही सरज़द हुई होगी जो उन्हें इस अंदाज़ से मुख़ातब किया गया नीज़ वो अपनी नो नविश्ता किताब, जिसकी स्याही अभी तर ही थी, उनके हाथ में बैन दफ़तीन मौजूद होने की गुत्थी अलबत्ता ना सुलझा सके।

    आप इसी ख़्याल पर वबाल के बीच में ही थे कि आप सारा मुआमला भाँप गए और आप पर लर्ज़ा तारी हो गया। आपने शहादत पढ़ी और दुरूद मुहम्मदﷺ और उनकी ऑल पर भेजा और बे-शक जो आँजनाबﷺ और उनकी ऑल पर दुरूद भेजते हैं अपना ही भला करते हैं।

    दुरूद समाअत फ़र्मा कर हथियार बाँधे मर्द ने इंतिहाई अदब से फ़रमाया कि मुबारक हो आप पर और मुबारक हो आपकी आल-ओ-औलाद पर, क्योंकि जिसने आपकी तसनीफ़ को पसंद फ़रमाया है उसने आपको बाद अज़ मग़रिब अपने दरबार आलीशान में पेश होने का हुक्म दिया है। ये फ़र्मा कर वो दोनों साहिब वहां से चल दिए।

    आपने इतमीनान का सांस लिया और अपनी मनकूहा से मुख़ातब हो कर यूं गोया हुए।

    ”ए उम हमज़ा ग़ौर से सुनो, क़लम उठाव, लिख रखो और याद रखो कि फ़लां यहूदी का मेरे ज़िम्मे दस दिरहम का क़र्ज़ा है जिसको फ़ील-फ़ौर अदा कर और इस के पास मेरी गिरवी अँगूठी लोट के ले लो।

    ये फ़र्मा कर अपनी वसीयत खोल कर देखी, इस में तग़य्युर की और इस पर अपनी महर सब्त की। इसी शाम मग़रिब की नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो मुनाजात सलवात के बाद वफ़ात पा गए। बे-शक हम अल्लाह ही के लिए हैं और हमें उसी की तरफ़ लोट के जाना है।

    ये कह कर मसऊद शीराज़ी ने, अल्लाह उन पर अपनी नेअमतें तमाम करे, फ़रमाया:

    ”तो अब जान लो जब मुहिम क़ाबिल हुसूल है, और इस का करना भी अज़ रोय शरीयत अहसन है और वो बेनज़ीर भी है तो फिर उस की जुस्तजू लाज़िम है और जान लो जुस्तजू ज़िंदगी से इबारत है और मुहिम ख़ाह कितनी भी कठिन क्यों ना हो उस के वास्ते जुस्तजू करना तो बस इबादत है।

    जान लो हसन के बेटे कमाल तो किसी काम का ये है कि लिवजा हिल्लाह तआला किया जावे और वो इस सबब कि चाहे वो काम पाया-ए-तकमील तलक पहुंचे या नहीं, उस की कामयाबी अल्लाह के नज़दीक मुस्लिम है और जो सई सईद हो , दिल से हो उसका तो अज्र वाक़ई है, चाहे मंज़िल कितनी बईद हो।

    मैंने एक काम, जो बिलफ़ाल ना-मुकम्मल हो लेकिन फिर भी अल्लाह के नज़दीक मक़बूल हो की तफ़सीर चाही तो आपने आईशा बिंत अमरोद मशकी की दुआ का बयान सुनाया जो नीचे रक़म करता हूँ।

    आईशा बिंत अमरोद मशकी की दुआ का बयान

    आईशा बिंत अमरोद मशकी एक माही गीर की ज़ौजा थीं, नेक ख़सलत नेक किरदार जो औलाद की नेअमत से यकसर महरूम थीं। उन्होंने हमेशा अल्लाह से दुआ की कि वो उनको सालह औलाद दे। उनकी तमाम दुआएं अर्श की तरफ़ गईं लेकिन जवाब नदारद। इस के अलर्रग़्म उनकी अल्लाह से उम्मीद की कफ़ीत हमेशा क़ायम और बरक़रार रही। वो तो बस सब्र करती रहीं, दुआएं करती रहीं।

    सुनने वाले ने उनकी मुनाजात को ज़रूर सुना होगा लेकिन शायद उस को उनका सब्र बहुत पसंद होगा तो ही शायद इसी बाइस दुआ की क़बूलीयत के आसार नज़र ना आए। दुआ मगर इबादत की जान है और जैसे जैसे इस नेक ख़ातून की तलब में शिद्दत आती गई वैसे वैसे उनकी दुआओं में सोज़ आता गया।

    एक दिन जब सज्दे में आँसू गिरे और उनको यूं लगा कि दामान सब्र बस अब हाथ से छटा जाता है तो क़बूल करने वाले से शायद वो आँसू देखे गए।। क़िस्सा मुख़्तसर उस रात उनको हमल ठहर गया।

    कहते हैं जिस दिन आईशा बिंत अमरो को अंदाज़ा हुआ कि वो जिसने दुनिया में आना है, तीन पर्दों में लिपटा क़रार मकीन में चुका है, मलिक इस में रूह फूंक चुका है तो ये मिन्नत मांगी कि अगर ये बेटा हो तो मैं हर सूरत उस को अल्लाह की राह में दूँगी कि वो सुन्नत रसूलﷺ पर चले, दीन का बोल-बाला करे।

    यूं उन्होंने वहन पर वहन उठा कर उसे पेट में रखा लेकिन जब मुआमला आगे पहुंचा तो उनको एक मर्ज़ ने आन घेरा कि सर में दर्द रहने लगा और दिन में बसा बार दस्त शोई की हाजत हुई, सांस में तकलीफ़ रही और दिल की धड़कन बे-तरतीब रही।

    जब वज़ा हमल का वक़्त क़रीब हुआ तो दर्द ज़ह से क़बल उनको नागहां मिर्गी ने ऐसे तसलसुल से आन घेरा कि उनका विसाल हो गया क़िस्सा मुख़्तसर जिस ने दुनिया में आना था वो तो आया हाँ जिसने दुनिया में रहना था वो चली गईं और जिनको नवाज़ने की शताबी होती है, उनको बुलाया भी जल्दी जाता है।

    आतका बिंत हुसैन मरोंदी ने अपने रिसाले आबदात-ओ-सालिहात © © © में तहरीर किया है कि मैंने इसी ख़ातून को ख़्वाब में जन्नत के एक बाग़ में तिलाई तख़्त पर दराज़ देखा, उसके पहलू में एक रज़ीअ था जो उस की आँखों की ठंडक था और वो अल्लाह की सना में मुसतग़र्क़ि थीं।

    © © वहां किसी ने उनसे अज़ राह तम्सख़र दरयाफ़त किया:

    ”ए अमरो की बेटी तेरा इस मस्कन में होना तो बहुत अजब है तेरे हाथों भला ऐसा क्या सरअंजाम हुआ कि तुझ पर इन नेअमतों का इतमाम हुआ बे-शक हम तो ये देखते हैं कि तो तूने कोई बेटा जना जो दीन की ख़िदमत करता और तू ख़ुद इस काबिल। हाँ अलबत्ता दुनिया में बीमारी के सबब तेरा तो बहुत ही बुरा अंजाम हुआ।

    ये सुन कर आंजनाबﷺ पर दूरूद पढ़ी और फिर तबस्सुम फ़रमाया

    ”मैंने सब्र किया और सई की कि ऐसा बेटा जनूँ जो अल्लाह के दीन को सरफ़राज़ करे और ये सब तो बस इसी कोशिश का समर है। उसने नीयत देखी, मेहनत देखी नतीजा नहीं बे-शक वो तो दिलों का रब है, उसे नताइज से क्या ग़रज़ और फिर तुझे क्या ग़रज़ इनाम का इतमाम तो वो जिस पर चाहे, जितना करे?

    ये कह कर मसऊद शीराज़ी ने, अल्लाह उन पर अपनी नेअमतें तमाम करे, मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कुछ देर मेरी तरफ़ तवज्जा से देखा और यूं गोया हुए।

    ”तो हुस्न के बेटे क्या ही कमाल है कि जब कोई काम किया जावे तो सिदक़ दिल से इस के लिए कोशिश की जावे और वो ज़ात बारी तआला को पसंद भी आजाए कि इस की सताइश का कोई बदल नहीं, कोई नज़ीर नहीं औरवह हर काम का अज्र देता है।। कई गुना।। चाहे वो काम एक ज़र्रा बराबर क्यों ना हो या वो जो तकमील से कोसों दूर हो हाँ अलबत्ता इरादा उस के करने का ज़रूर हो। तो बस जान लो तुम्हारी कोशिश तुम्हारी कामयाबी है।। बे-शक जिसने ज़र्रा भर नेकी की वो उस के अज्र को देख के रहेगा।

    अब जब ये सब जान चुके हो तो बस एक एहतियात करो कि क़वी दुश्मन से दूर रहो और याद रखो इस मुहिम में अपने सबसे बड़े क़वी दुश्मन तुम ख़ुद हो। जान लो तेरा नफ़स उतना क़वी है कि अगर एक लहज़ा भी इस से ग़ाफ़िल रहे तो ये तुझ पर हावी हो कर तुझे गुमराह कर देगा तुझे नसब उल-ऐन से जुदा कर देगा और जो इस से जुदा हुए तो ख़ाक बरसर गरीबां तारतार होगे और मक़सद से दूर, दर बह दर ख़ार रहोगे।

    बैत

    गुफ़्ता चरास्त ख़ाली, गुफ़्तम ज़ बीम रहज़न

    गुफ़्ता कि केसत रहज़न, गुफ़्तम कि इन मलामत

    जान लो हस्न के बेटे, अफ़्रासियाब अब सन रसीदा और कमर-ख़मीदा है। अर्ज़ल अलामरी के बाइस उस के दाँत झड़ चुके हैं, ज़बान में लुक्नत है। इस का चेहरा तास्सुरात से ख़ाली और झुर्रियों से भरा है। बाल कोह-ए-दमावंद की बर्फ़, हाथों में रअशा, क़फ़ीफ़ अलबसर तिलाई पलंग पर पड़ा अपनी अजल का मुंतज़िर है, पलक झपकता है कुछ कलाम करता है। इस सूरत पर है कि जीता है मरता है। मलिका हैरत, गो अब भी आब-ए-हयात के असर से जवान है, इस के सीने बुलंद हैं और वो वास्ते नेको कारों के फ़ित्ना है, इमतिहान है मगर उसे आरिज़ा निस्यान है कि ज़िंदा तो है मगर शुमार में बे-जान है और बे-शक उम्र जो गुज़र जावे उस की आरज़ू रायगां है।

    बैत

    खोज मिलता है हर मुसाफ़िर का

    उम्र-ए-रफ़्ता का कुछ सुराग़ नहीं

    तो फिर तो उसी सबब तिलिस्म का सब कर्ता धरता अब उस की बहन बहार जादू है सो जब तुम वादी इतलिसम हो शरुबा की तरफ़ सफ़र की ठान लो तो पहले शुमाल की तरफ़ जाना जहां तिलिस्म का मुक़ाम है वर्ना भटक जाओगे क्योंकि जो भी इस सिम्त का इरादा करता है। बहार जादू अपने सहर-ए-पर असर से गाव ज़मीन के सींगों में कुर्राह-ए-अर्ज़ अटका कर यूं घुमा देती है कि क़िले और बुरज का मुक़ाम यकलख़्त तबदील हो जाता है। फिर वो एक पुतला सहर का, मख़फ़ी, इस मुहिम जो पर ऐसा मुक़र्रर करती है जो उसे रास्ते से भटका देता है और मुहिम जो अबदुल्लाह बिन उसमान की तरह एक दायरे में हमा उमर चलता रहता है और ये मुहिम, जो फ़िल-हक़ीक़त क़ाबिल हुसूल है, उसे मुकम्मल करना नामुमकिन और लाहासिल बना देता है।

    अब तदबीर उस की ये करो कि पहले जुनूब में दश्त सबज़ रेग में मीनार फ़लक आसार पहुँच और वहां मौजूद ज़ीना हयात चढ़ कर छटी मंज़िल के कमरे के ताक़चे में ज़मुर्रदी कलीद का पहला हिस्सा हासिल करो। जान लो इस मुनक़सिम कलीद का एक हिस्सा बहुक्म अमीर हमज़ा, अमरो अय्यार ने इस मीनार में छिपा रखा है जबकि उस का दूसरा हिस्सा क़स्बा मुर्दगाँ में एक क़ब्र में गाढ़ा है। जब दोनों हिस्से यकजा हों कलीद मुकम्मल हो और तिलाई नज़र आवे। ख़ूबी कलीद की ये है कि जब तक तेरी मिल्कियत में हो कोई धोका, जादू या फ़रेबे नज़र तुझको मात ना देवे जब तलक तू ख़ुद इस में शामिल ना होवे और कोई तुझसे कलीद नहीं ले सकता ता आंका तो ख़ुद उसे किसी के सपुर्द करे। तो बस यही तिलाई कलीद बुरज का दुरूह करे, अंदलीब को रिहा करे।

    तो अज़बर कर लो कि जब मीनार फ़लक आसार में दाख़िल हो तो इस में पड़े नक़्क़ारे पर चोट मॉरो। इस की तासीर से तो मख़फ़ी पुतले के सहर से महफ़ूज़ रहेगा। तो फिर जिस सिम्त आवाज़ ज़्यादा बुलंद सुनाई दे बस ईसी सिम्त तेरा रास्ता है गोया शुमाल ही क्यों ना हो।

    फिर उसने मुझे एक दो-रंगी तिलसमी छड़ी अता फ़रमाई और वादी तलसम हो शरुबा तलक पहुंचने की पूरी तफ़सील मू बह मू बताई जो मैंने अज़बर कर ली और जो बखौफे तवालत बयान रक़म करने से अहितराज़ बरता हूँ और यूं अज़ीज़ो में रात को अपने पहले पड़ाव दश्त सबज़ रेग में जा पहुंचा।

    रूदाद मीनार फ़लक आसार में रात की और बात ज़ीना हयात की

    जब आलिम बेमेहर, महर आलमगीर के नज़ारे से महरूम हुआ तो साहिर शाम के रंगों का खेल भी उफ़ुक़ पर बतदरीज मादूम हुआ। ताना-बाना ले कर सितारे आगे बढ़े और सतह गुर्दों पर मुस्तइद्दी से स्याह चादर बनी जिसे शब ने ओढ़ा, और शान-ए-इस्तिग़ना से ज़ीना ज़ीना उतरने लगी। जब एक दो-घड़ी रात बीत गई तो आजिज़ की हालत ग़ैर हो गई लेकिन छाई हुई तारीकी के शर से अल्लाह के हुज़ूर पनाह मांगी और मूजिब फ़रमाने के तिलसमी छड़ी अपनी जेब से निकाली और बीच सितारों के दब-ए-अकबर को तलाश किया। इस के सितारों अलमग़रीज़, मज़ार और अलकायद को एक क़ौस की सूरत एक मुसलसल लकीर से जोड़ा और इस लकीर को क़ौस की सूरत आगे बढ़ाता गया तो इख़तताम उस का बृज-ए-असद के सितारे क़लब अलासद पर हुआ जिसके ऊपर चार सितारे गिने तो फ़क़ीर अपने मतलूबा सितारे रासुल असद पर पहुंचा।

    मैंने हिसाब लगाया तो मिर्रीख़ ऐन तिलसमी छड़ी के ऊपर था जिसका बैन मतलब ये था कि मिर्रीख़ रास अलासद से आगे जा चुका था और ये माजरा देखकर मुझे बहुत दुख हुआ और बेबसी से बस आहें भरता रह गया कि मुझे कामिल यक़ीन था कि अब एक हज़ार तीन साल, दो महीने, चालीस दिन, दो साअतें, एक दक़ीक़ा और दस सानीए बाद दुबारा यही तर्तीब फ़लक में ऐन उसी सूरत बने और मीनार फ़लक आसार अदम से वजूद में सके और मैं हसरत से हाथ मिलता रह गया।

    फिर यकायक मुझे अपने उस्ताद की बताई हुई बात याद गई कि बे-शक मिर्रीख़ अगर एक हफ़्ता आगे जाता है तो कुछ दिन पीछे भी तो सफ़र करता है। जब मैंने दुबारा हिसाब जोड़ा तो ये मिर्रीख़ के पीछे के सफ़र का वक़्त था और ऐन रास अलासद के मुक़ाबिल आने में अभी मुतलक़ सतरह पहर बाक़ी थे और यूं मसऊद शीराज़ी की हर पैशन गोई हर्फ़ बह हर्फ़ पूरी हुई।मैंने लिल्लाह का शकरा अदा किया।

    बैत

    हैं कवाकिब कुछ नज़र आते हैं कुछ

    देते हैं धोका ये बाज़ीगर खुला

    अगली रात तिलसमी छड़ी क्लब-ए-दश्त में इस सूरत गाड़ी कि काला सिरा ज़मीन में जबकि सुर्ख़ सिरा आसमान की तरफ़ था। क्या नज़ारा करता हूँ कि फ़लक गोया एक फ़लक है या सितारों भरा कोई सफ़ीना है और क़ुदरत का क्या क़रीना है कि अहमरीं सय्यारा, जल्लाद फ़लक, जंग का देवता, मिर्रीख़ रूबा गर्दिश इस सूरत आसमान में है गोया एक नगीना रास अलासद के साथ ऐन क़िरान में है। जब रात एक घड़ी और बीत गई तो अचानक एक शोला , तेज़, मानिंद तीर आतिशीं तिलसमी छड़ी से बुलंद हुआ और वो अख़्गर सूरत, सुरअत रफ़्तार सीधा मिर्रीख़ के क़लब में जा उतरा।मिर्रीख़ पर लर्ज़ा तारी हुआ और इस से गोया मीना नूर का बरसा और एक शबिया मीनार की सहरा में हुवैदा हुई।

    मैं सुरअत रफ़्तार जानिब मीनार भागा और दरवाज़े पर तीन दस्तक देकर सूरतुल बृज का विर्द किया। दरवाज़ा बे हियल-ओ-हुज्जत वाह हुआ और यूं मैंने मीनार के अंदर क़दम रखा। सानियों बाद रोशनी का मंबा यकदम बुझ गया मिर्रीख़ की हरकत कुछ ऐसे तेज़ हुई गोया शहाब साक़िब, फिर सब कुछ मामूल पर आगया। मीनार नूरी सूरत से ख़ाकी क़ालिब में गया और मैंने उस का बग़ौर मुशाहिदा किया।

    हैरत का कारख़ाना, अजूबा ज़माना मीनार फ़लक आसार शफ़्फ़ाफ़ और बिना मैं मख़रूती था उस का क़ायदा एक कामिल दायरा था जिस पर इमारत इस सूरत क़ायम थी कि गोया अपने ऊपर बल खा रही हो। नूर गुज़रां ईंटों से बनी दीवार में जाबजा रोशन मिशअलें गड़ी, धड़ धड़ जलती थीं। क्या नज़ारा करता हूँ मीनार के क़लब में एक ज़ीना, मुअल्लक़, पेचदार था, जो ज़ीना हयात था, अल्लाह की क़ुदरत का शाहकार था

    ज़ीने के दोनों हिस्से एक दूसरे के मुतवाज़ी बल खाते, खंबा ख़म, बीच में एक दूसरे में ज़म, हवा में मुअल्लक़ रूबा गर्दिश थे गोया दो साँप एक दूसरे से लिपटे पेच दर पेच, ताव दर ताव थे और ख़म खाता ज़ीना दूर से ऐसा लगे जैसे कोई सतून। जब ग़ौर किया तो वो तो शबिया मुअल्लक़ और अक्स बरजस्ता नुमा थी लेकिन जब विदर्द सूर का किया तो उस के असर से वो ज़ीना शबिया से माद्दी हालत पर गया और मुझे इस पर पैर रखने और जमाने में दुशवारी पेश ना आई।

    मुबर्हन रहे कि हर पाएदान में दो रंग और कुल रंग चार थे कि बिलतर्तीब सुर्ख़, सपीद, सबज़ और जामनी थे बल खाते ज़ीने में जामनी रंग सबज़ जबकि सुर्ख़-रंग सपीद से जुड़ा और इस के मुतवाज़ी था और ज़ीना हल्के ख़म के साथ एक ज़ावीया ख़फ़ीफ़ बना कर ऊपर की तरफ़ रूबा सफ़र था और हर दस सीढ़ीयों के बाद एक चक्कर मुकम्मल होता था और ज़ीना रिफ़अत में एक मंज़िल बुलंद होता जाता था।

    मनाज़िल तादाद में ज़मीन को मंज़िल मान कर आठ थे। जुफ़्त मंज़िलों की पहुंच रास्त जबकि ताक़ मंज़िलों की पहुंच चप जानिब से मुम्किन थी। ज़ीने की हरकत से एक सदाइयों पैदा होती थी कि गोया कोई ज़िक्र में मशग़ूल हो और ख़फ़ीफ़ आवाज़ से मुनाजात अपने रब की पढ़ रहा हो कि बे-शक तस्बीह करता है वास्ते अल्लाह के जो कुछ भी है आसमानों की वुसअत में और ज़मीन के क़लब में।

    तमाम खुले मनाज़िल ग़ैर मुक़फ़्फ़ल थे सिवाए आख़िरी मंज़िल के, जिसका दरवाज़ा आहनी था और इस पर एक भारी ज़ंगआलूद क़ुफ़ुल पड़ा था और वहीं अमरो अय्यार की ज़ंबील थी। हर मंज़िल का नाम अजराम-ए-फल्की पर था और तरतीबवार ज़ुहरा, माह, मिर्रीख़, मुशतरी, ज़ुहल, अतारिद और आफ़ताब थे।

    मैंने बमुताबिक़ फ़रमाने के हिम्मत मुजतमा करकर नाम अल्लाह का लिया और अपना दायाँ पावं पहले पाएदान पर रखा। साठ क़दम गिन कर दाएं ज़ीने से छठी मंज़िल में पहुंचा कि जिसमें एक नक़्क़ारा ऐसा पड़ा था कि मुहीत में कम-ओ-बेश छः गज़ था। मैंने नक़्क़ारे के ऊपर दीवार में एक ताकचा देखा जो लम्हा बह लम्हा खुलता और बंद होता था और जिसमें ज़मुर्रदी किलीद का पहला हिस्सा पड़ा था मैंने उसे बिसमिल्लाह पढ़ कर उठाया और वहां मूजिब फ़रमाने के तिलसमी छड़ी रख दी जब इस अमर से फ़ारिग़ हुआ तो नक़्क़ारे की तरफ़ मुतवज्जा हुआ और इस का बग़ौर मुशाहिदा किया।

    क्या देखता हूँ एक नक़्क़ारा धरा है जिसके साथ एक मुनक़्क़श चौब पड़ा है। नक़्क़ारे पर स्याह रंग से चार सम्तों के नाम ख़त-ए-कूफ़ी में दर्ज थे। मैंने चौब उठाया तो नक़्क़ारे में सूरत एक इर्तिआश की पैदा हुई। इस मंज़र यहीरत नाक से दम बख़ुद मैं ने पहले नक़्क़ारे के मशरिक़ी और फिर मग़रिबी किनारे पर ज़रब दी लेकिन कोई सदा आई। शुमाल पर ज़रब पड़ी तो एक सदाए दर्दनाक सुनाई दी, इर्तिआश के जिससे तमाम मीनार यक-बारगी ऐसा हिले गोया अब गिरे। इस सदाए पर हैजान से इस सिम्त का पता चला जहां से एक दिन की मुसाफ़त पर क़स्बा मुर्दगाँ का गोरिस्तान था जो तिलसम हो शरबा से चंद दिन की मुसाफ़त पर था और वहीं से मुझे ज़मुर्रदी कलीद का दूसरा हिस्सा मिलना था। मैंने दिल में क़सद बस्ती मुर्दगाँ के गोरिस्तान का बाँधा और अपने तईं अज़्मबिल् जज़्म किया कि कल सफ़र का आग़ाज़ करूँ।

    रात मीनार-ए-फ़लक आसार में बसर करकर अगली सुबह, सहरा से निकल, अपने घोड़े हशतरब को एक सीटी से बुलाया। वो रहवार साइक़ा रफ़्तार चहार नाल रफ़्तार वास्ते सफ़र के तैयार चशम ज़दन में मेरे सामने आन हाज़िर हुआ मैं चलता चला गया, मेरा हदफ़ हर गाम मेरे क़रीब आता चला गया। सहरा की वुसअत हशतरब, ग़ैरत सरसर के सुमों के नीचे सिमट गई और रेत पर उस के निशान बनते और मिटते चले गए।

    बैत

    नक़श-ए-पा की सूरतों वो दिल-फ़रेब

    तू कहे बुतख़ाना आज़र खुला

    हिस्सा दोम

    पहुंचना बस्ती मुर्दगाँ में और हासिल करना किलीद का दूसरा हिस्सा

    आधे दिन की मुसाफ़त पर फ़क़ीर को इस सहराए बे-आब विग्याह में एक क़ता सब्ज़े का नज़र आया जिसको शुरू में आजिज़ एक सराब समझा लेकिन क़रीब पहुंचा तो वो हरा-भरा नख़लिस्तान था। ये देखा तो अल्लाह का शुक्र बे-हिसाब अदा किया। नख़लिस्तान क्या था बारह तेराह ख़जूरों का झुण्ड था जिसमें ठंडे पानी का एक चशमा रवां था और तुयूर सना में रब अलाज़त के मशग़ूल थे और मदहोश दर दुरूद रसूल मक़बूलﷺथे। भूक से निढाल पक्की खजूरें देख कर मेरा दिल ललचाया और इरादा किया कि इन को तोड़ खाया जाये।

    मैं अभी किसी पत्थर की जुस्तजू में ही था कि एक बुज़ुर्ग, सफ़ैद रेश, हाथ में असा, ख़िज़रसूरत से सामना हवा में उनकी तक़दीस से मरऊब हुआ और सलाम किया। मेरी पेशानी पर मेरी तही शिकमी लिखी देखी तो उन्होंने तबस्सुम फ़र्मा कर मुझे एक पत्थर थमा कर, खजूरें गिरा कर, तनावुल करने की इजाज़त अता फ़रमाई।

    ठंडा पानी और मीठी खजूरें खाईं तो मेरी जान में जान आई। बाद अज़ तआम, अल्लाह की हमद पढ़ी जिसने मुझे खिलाया पिलाया और मुस्लमान पैदा किया और फिर उस बुज़ुर्ग का शुक्रिया भी अदा किया और साथ अपने सफ़र की रूदाद पर हैजान मू बह मू बयान की।

    पीरमर्द आली सिफ़त ने पूरा बयान सुना तो इस पत्थर को, जिससे मैंने खजूरें गिराएँ थीं, उठा कर यूं गोया हुए।

    ”ए हसन के बेटे तिलसम की सरहदें बहुक्म बहार जादू अब अगले दस हज़ार साल के लिए मुक़फ़्फ़ल हैं और उसे सिर्फ क़लब फ़ीरोज़ा से ही खोला जा सकता है।

    ये कहते हुए उन्होंने पत्थर मुझे थमाया तो देखा कि अब उस का रंग हल्का आसमानी माइल था।

    ”जब ये संग फ़ीरोज़ा फट जावे तो उस के दरमयान से एक और बैज़वी पत्थर अनार के दाने जितना निकलेगा और यही क़लब फ़ीर रोज़ा है। अब जब ये दस्तयाब हो तो जुनूबी सरहद के पास पहुँचो, क़लब फ़ीरोज़ा को आसमान की तरफ़ उछालो और तीन बार मऊज़ तीन पढ़ो फिर देखो कलाम पाक की बरकत से तेरे लिए एक दर मख़फ़ी निवारनी मख़लूक़ खोल देगी सो यही तेरा तिलसम में मुक़ाम दख़ूल है।

    याद रखो जो इस रास्ते के बग़ैर तिलसम में दाख़िल होने की जुस्तजू की तो बहार जादू की शरीर तलमेज़ा फ़ीरोज़ा जादूगरनी के सहरके असर से भस्म हूजागे।

    जब मैंने रुख़स्त होने की इजाज़त तलब की तो उन्होंने मुझे पीने को दूध दिया। मैंने नज़र बचा कर संग फ़ीरोज़ा इस में हल्का सा डुबो दिया तो देखा कि इस की तासीर से दूध फट गयाऔर मुझे यूं इस बुज़ुर्ग की बात की सदाक़त का यक़ीन हो चला कि बिलाशुबा वो पत्थर फ़ीरोज़ा ही था।

    अज़ीज़ बा तमीज़ो

    मैं अब क़स्बा मुर्दगाँ की तरफ़ चला कि मैंने इस बस्ती के गोरिस्तान से ज़मुर्रद कलीद का दूसरा हिस्सा लेना था। क़स्बे में दाख़िल हुआ तो रात हो चुकी थी। मुश्किल से ढूंढ कर एक सराय में क़याम किया।

    इस बस्ती के मुताल्लिक़ ये सुना था कि पेशतर लोग इस बस्ती में मर कर भी जीते थे, कि तो मुर्दा थे और ज़िंदा। समाअत से आरी मानिंद बहाइम ज़िंदगी बसर करते थे, ज़ुलम होते देखकर आँखें बंद रखते थे, ज़बानों को क़ुफ़ुल दे बैठे थे और यूं इस तोरवा दुनिया और मा फ़ीहा से बे-ख़बर ज़िंदगी बिताते थे। मैंने फ़रीज़ा शब अदा किया और मस्नून अज़कार पढ़ कर सो गया।

    मैं अभी नींद और बेदारी के बीच मुअल्लक़ ही था कि यकायक एक ग़लग़ला बुलंद हवा में जल्दी से निकला, असमा-ए रद्द-ए-सेहर पढ़े, अपना जुड़ाव ख़ंजर नेफ़े में उड़सा कि दाफा नहूसत है और इरादा किया कि मालूम करूँ कि नेम-शब इस शोर-ओ-ग़ौग़ा का आख़िर बाइस किया है। चलते चलते आजिज़ एक चौराहे में पहुंचा।

    नज़ारा किया कि चौराहे में लाखों का मजमा था, कोई पा पयादा कोई अस्प-ए-सवार और सब के सर-ए-आसमान की तरफ़ और आँखों की पुतलीयां चढ़ी हुई थीं, आहो बका करते, जौक़ दर जौक़ रवां इस कैफ़ीयत में मख़मूर, शहर से बाहर जाने की सई करने लगे और फिर नोहा एक आवाज़ मुहीब से करने लगे कि हंसते भी थे और रूबा गिर्ये भी थे। इस अंबोह कसीर, जम-ए-ग़फी़र के इस बे-मक़्सद वावेले से दिल दहल तो गया और एक तरह का धड़का सा भी लगा रहा कि मुफ़्त में मुसीबत मोल लेना क़रीन-ए-मस्लहत नहीं पर नाचार उनके साथ चलता चला गया कि शायद इस में कोई भेद आफ़ाक़ी हो सो कुछ ख़बर उस की भी लेना चाहिये। चलते चलते सारे लोग शहर से बाहर एक वसीअ-ओ-अरीज़ गोरिस्तान में पहुंच गए।

    वहां का मंज़र अलग था, तमाम क़ब्रें शक़, उधड़ी पड़ीं थीं, ताबूत खुले और कुतबे बिखरे पड़े थे। तब मैं समझा कि इस शहर-ए-मतरूक के तमाम बासी मुर्दा हैं और ये शहर, शहर-ए-ख़मोशाँ है और रहने वाले इस शहर के तो मरजाने से, नीस्त-ओ-नाबूद होने से भी कई गुना बड़ा अज़ाब में हैं

    मैंने मुसव्विर की हिदायत के मुताबिक़ गोरिस्तान में सबज़ क़ब्र को जुनूबी हिस्से में पाया और इस से दाहिनी तरफ़ उनत्तीस क़ब्रें गिनें और तीसों क़ब्र के सामने रुक गया। यकायक वो क़ब्र शक़ हुई और वहां से कलीद का दूसरा हिस्सा दस्तयाब हुआ।

    अब जब दोनों हिस्सों को बाहम मिलाया तो नज़ारा किया कि मुकम्मल कलीद सब्ज़-रंग से तिलाई हो गई और तब मैंने जाना कि अब मुझे वो कलीद मिल चुकी है जिससे ज़िंदान को वॉकरों जहां पाद शाहज़ादी मुक़य्यद थी जिसको अज़ीयत हब्स से रहा करूँ तू ही मुझे वलाएत और आग़ोश गुलशन ख़ूबी की मिले। इन्ही ख़यालों में डूबा मैं तिलसम की तरफ़ चल पड़ा।

    पहुंचना वादी तिलसम होश-रुबा में और मिलना फ़ीरोज़ा जादूगरनी से

    चंद दिन की मुसाफ़त के बाद मैं एक तारीक तर सुरंग पुरख़तर में जा पहुंचा। अंधेरे में डूबी ये सुरंग वाद्य-ए-तिलिस्म-ए-होश-रुबा का पहला मुक़ाम दख़ूल था। रात हो चुकी थी सो मैं ने अल्लाह का नाम लेकर उस की हदूद के बिलकुल क़रीब अपना ख़ेमा गाढ़ा और रात बसर की। हमा शब इस सुरंग से आवाज़ें जुनूँ और चुड़ेलों की आती रहीं कि जिसे सुनकर ज़ुहरा आब हो जाएगी लेकिन मैं सिपाही ज़ादा था, रुस्तम सिफ़त और ज़ाल ख़सलत जाँबाज़ों से लड़ा था सो इन आवाज़ों से डरा नहीं बल्कि इस से मेरा हौसला और क़वी हुआ मैं मुंतज़िर रहा और जब फ़रीज़ा सह्र से सबकदोश हुआ तो सुरंग में दाख़िल हुआ।

    इंद्र घुप अंधेरा, हाथ को हाथ ना सुझाई दे, मैं घोड़े के ज़ैन को पकड़े अल्लाह के आसरे पर चलता रहा और मुझे अजीब मुशाहदात का सामना हुआ। यूं लगा जैसे मुझे अपने जिस्म पर किसी के हाथ महसूस हुए। मैंने परवाह की और विर्द कलाम पाक जारी रखा। आगे मुझे अपने चेहरे पर किसी की ताफ़्फ़ुन ज़दा साँसें महसूस हुईं लेकिन मैंने ख़ौफ़ को अपने ऊपर ग़ालिब आने दिया। फिर मुझे अपने जिस्म पर किसी दरिंदे के पंजे लगते महसूस हुए लेकिन मैंने अल्लाह का नाम लिया और इस के बारे में कुछ सोचा।

    फिर मुझे यूं लगा कि मेरे दाएं बाएं तीर गुज़र रहे हैं जो बस मेरे जिस्म को छू कर गुज़र रहे हैं और तलवारें और गुर्ज़ मेरे क़रीब ऐसे चल रहे हैं कि मुझे दो टुकड़े कर दें या मेरा सर पाश पाश कर ख़शख़ाश बना दें, लेकिन मैंने अल्लाह का नाम लिया और इस के बारे में कुछ ख़्याल ना किया। आख़िर-कार में इस तारीक सुरंग से बाहर निकल आया और तिलिस्म-ए-होश-रुबा की सरहद तक पहुंच गया।

    क्या देखता हूँ कि एक वादी है पर अज़कोहसार-ओ-मुर्ग़-ज़ार हर जा सब्ज़ा बेशुमार, दरख़्त बे-हिसाब फल नाशपाती, अमरूद, ख़ूबानी, सेब, आम,खजूर,आड़ू,इंजीर,पिस्ता,बादाम,अखरोट, अंगूर, अनार ग़रज़ हर फल मौसमी और ग़ैर मौसमी लाजवाब और दस्तयाब। घर वहां नीले, पीले, सुर्ख़, क़िरमज़ी, सबज़, गुलाबी, ख़ाकसतरी, जामनी, सफ़ैद, स्याह, मटियाले, नुक़रई, ज़रीं, कूचे पक्के और साकनीन कद्दावर हसीं, ख़ंदा-जबीं

    ज़नान यवादी परीसूरत-ओ-ख़ूबसूरत, नीम ब्रहना वली ख़ुशपोश, लब यमनी लाल सूरत, मुस्कुराहटें ज़ोहद शिकन, ख़ूबसूरत नैन नक़्शे वाली, नाज़नीन मह-ए-जबीन मानिंद मह रक्खाँ शहर-ए-गुल रोयाँ, दस्त-ओ-बाज़ू नरम नाज़ुक-ओ-सपीद, क़ौसें कासें सब बराबर, ग़ालियामू, कुचें सख़्त, रानें भरी सुडौल और हर एक गुल रुख़, रंग जिनका सुर्ख़-ओ-सपीद जैसे बर्फ़ पर बर्ग गुलाब पाशीदा, रुख़्सार गोया कंधारी अनार, गेसू ताबदार, क़द फ़लक आसार,नाक सुत्वाँ आँखें कुछ ज़मुर्रद-रंग कुछ नीलम रंग और बाल तिलाई या जैसे भड़कती आग। मैंने अपने निगाहों की हिफ़ाज़त की लेकिन कर सका दुबारा देखने की हवस थी सो एक-बार जी भर के दुबारा देखा और फिर भी किन अक्खियों से देखा लेकिन सोचा ये सबकी सब फ़ित्ना हैं।

    बैत

    ज़ाहिर नुक़रा गर अस्पैदस्त-ओ-नो

    दस्त-ओ-जामा हम स्याह गर्दद उज़्व

    यकायक संग फ़ीरोज़ा याद आया, जेब से निकाला तो देखा कि वो अब शक़ हो चुका था और इस में से एक अनार के दाने जितना क़लब फ़ीरोज़ा निकल आया था। मैंने अल्लाह का नाम लिया और तीन बार मऊज़ तीन पढ़ कर क़लब फ़ीरोज़ा आसमान की तरफ़ उछाला। पाक कलाम की बरकत से एक दर इग़ीबी नमूरदार हुआ और में इस में दाख़िल हुआ। अब मेरे और साकिनान-ए-शहर के बीच एक ग़ैर मुरई दीवार थी कि वो मुझे और में उन्हें देख सकता था लेकिन वो मेरे क़रीब नहीं सकते थे।

    शुरू में उन्होंने मुझे अपनी तरफ़ राग़िब करने की कोशिश की लेकिन मैंने दिल में इरादा मुसम्मम बाँधा हुआ था कि हदफ़ पर निगार रखकर किलीद से बुरज को वाह करूँगा पाद शाहज़ादी को रिहा करूँगा इस से निकाह करूँगा और फिर कुछ सोच कर किसी नाज़नीन से यहां निकाह सानी या सालस हती कि राबा करूँगा और उनको दीन इस्लाम सिखा, ताज़ीम अहल-ए-बैत मुतह्हर यन की बतला कर राह-ए-रास्त पर लाउंगा ताकि यहां भी इस्लाम का बोल-बाला हो और कुछ मज़ा आजिज़ भी ज़ीस्त का चखे।

    चशमज़दन में मेरे आने की ख़बर फ़ीरोज़ा जादू को हो गई। वो दौड़ती चिल्लाती मेरे सामने गई। इस के चेहरे की तरफ़ इक नज़र की तो देखा की इस की एक आँख स्याह थी जबकि दूसरी नीलम मुशाबेह और होंट दोनों सबज़ थे। शुरू में मुझसे बातें आराम से कीं, कुछ तारीफ़ की, सताइश की, ख़ुशामद की लेकिन फ़क़ीर उस के जाल में ना आया और जब उसे अपनी दाल गलती दिखाई दी तो पर ग़ैज़ लहजे में मुझसे ये कलाम किया।

    ”ए पागल शख़्स तू किस जुनून में अपनी जान को खपाता है ? तुझे कुछ मालूम है अंदलीब किस्तान की पसंद है। अग्रवा तेरे इरादे का सुने, तो तुझे कुचल डाले लेकिन ये मैं हूँ जो उसे रोके रखों। जान लो किस्तान जो चाहे करे, जिसको जहां से उठा ले वो आज़ाद है कि इस को बिहार जादू की पुश्तपनाही हासिल है। अब सुनो, तो अगर इस सौदे से बाज़ आया तो हम तुझे भस्म कर देंगे।

    ”बड़ी आई भस्म करने वाली, जाओ अपनी राह लो। हमारा इरादा मुसम्मम है और ज़ामिन हमारे फ़रिश्ते हैं जो तेरे नापाक जादू का तोड़ जानते हैं।

    फिर उस मनहूस जादूगरनी ने सह्र अलामोत का मंत्र पढ़ा और मेरी तरफ़ फूँका जिसकी तासीर से मेरे क़दमों के नीचे एक इर्तिआश की सूरत पैदा हुई, ज़मीन फट गई और क़ार ज़मीन में लावे का समुंद्र नज़र आया जिसमें आतिशीं साँप थे। मेरे क़दम डगमगाए और क़रीब था कि मैं गिर पड़ूँ लेकिन एक रस्सी आसमान से मेरे सामने मुअल्लक़ हवा में आई और मैंने उसे पकड़ लिया।

    यके बाद दीगरे इस जादूगरनी ने अपने तमाम गर जो इस को आते थे मुझ पर आज़माऐ लेकिन इस की एक भी चली और मैं चलता रहा। होते होते मुझे दूर से बुरज नज़र गया और मेरे चेहरे पर बशाशत फैल गई। ये देखा तो इस को ताव गया लेकिन कर कुछ भी सकी, बाल नोचते, दाँत पीसते पैर पटखते, गरीबां फाड़ते, बा आवाज़ बुलंद बैन करते, नोहा कनांदाएं बाएं थूकती हुई चली गई।

    मैंने सोचा कि बुरज तक पहुंचने से पहले एक रात आराम करूँ ताकि ताज़ा-दम हो कर इस संगलाख़ कोहसार पर चढ़ सकूँ। इस वास्ते मैंने एक सब्ज़ा-ज़ार का इंतिख़ाब किया, ख़ेमा गाढ़ा और हथियार उतार कर झाड़ीयों में छिपा दिए। एक याक़ूती ख़ंजर कि चशमज़दन में सर तन से जुदा कर दे और एक चोबी चाक़ू वास्ते शिकार के अपने लिबास में अलबत्ता रख लिया। एक बड़ा सा गढ़ा खोद कर इस में ख़ुशक लकड़ियाँ और पते डाल कर आग रोशन की कि दाफा जिन्नात बलियात-ओ-हैवानात विमोज़ी हशरात हो नीज़ शिकार भी भून सकूँ।

    इस तरकीब से फ़राग़त हासिल की तो घोड़े को एक छागल पानी की पिला दी और खुला छोड़ दिया कि ख़ूब सैर हो कर चरे। ख़ुद भी मश्कीज़े से जी भर के पानी पिया और वुज़ू किया। वक़्त नसफ़ अलनहार से एक घड़ी गुज़र चुका था सो ज़ुहरीन अदा की, छागल और मशकीज़ा साथ लिया कि किसी झरने या नदी से ताज़ा पानी भर लूं और कुछ खाने वास्ते शिकार की तलाश करूँ। मेरे घोड़े को जंगली सेब बहुत मर्ग़ूब थे तो सोचा वापसी पर कुछ जंगली सेब तोड़ लाउं।

    बहार अपने जोबन पर थी। मैंने सोचा ये वाद्य-ए-तिलसम होश-रुबा भी किया हसीन मुक़ाम है कि दुनिया की हर आसाइश यहां वाफ़र मौजूद है और मैं जहां सारी उम्र रहता रहा किस क़दर बेहूदा जगह है। वहां कोई नाज़नीन इस वादी की किसी नाज़नीन जैसी हसीन नहीं। वहां कोई जादू नहीं हर वक़त ज़हर भरी हक़ीक़त का सामना है। वहां ज़िंदगी रेंगती है, सिसकती है यहां सुरअत है, जमाल का कमाल है, मौसीक़ी है मुत्रिब हैं साक़ी के जल्वे हैं शराब की मस्ती बरसती है शबाब का उरूज है और वहां हर चीज़ का फ़ुक़दान है और हर-सू पस्ती है। फिर सोचा वहां मुहब्बत है मिठास है, यहां दिखाव है, वहां की मिट्टी में ख़ुशबू है यहां की मिट्टी में तल्ख़ी है, वहां दिल हैं यहां पत्थर हैं।

    अभी मैं इन्ही ख़यालों में गुम रवां था कि किसी ख़ातून के रोने की आवाज़ सुनाई दी। दरख़्तों के इस पार एक पीरज़न को देखा कि हिजाब ओढ़े रूबा गिर्ये है। मैंने सोचा कि बाज़पुर्स करनी लाज़िम है कि रम्ज़ उस के रोने का पाइं और हत्तलमक़दूर मदद करूँ।

    मैं रफ़्ता-रफ़्ता उस के क़रीब गया और गरएए की बाबत इस्तिफ़सार किया।

    नेक मर्द मैं मुस्लमान हूँ कि जब जवान थी शाहज़ादा नूर अलदहर के इशक़ में क़बूल इस्लाम किया जिस की पादाश में अफ़्रासियाब का ज़ुलम सहा और आज तक इस तिलसम से निकलने के लिए बेक़रार हूँ आज पता चला कोई दीन इस्लाम का फ़र्ज़ंद यहां आया है तो चली आई कि इस से मदद तलब करूँ।

    ”आप मख़मूर जादू तो नहीं हैं?

    ”अरे हाँ लेकिन जादू पर लानत भेजती हूँ और उम्मत में रसूल अमीनﷺ की ख़ुश हूँ

    ये सुना तो इस पर कामिल एतबार किया और इस के साथ उस के घर चल आया।

    ज़िक्र मख़मूर जादू के घर का और अल्मास जादू का दीदार करना

    मख़मूर जादू का घर-घर नहीं एक क़सर था, मीलों पर फैला ता हद बसर था। एक जन्नत मिसाल क़ता, हर-सू खजूर, बलूत, शीशम, ज़ैतून , देवदार, कीकर, जामुन, तोत, अमलतास, फुलाई, पीपल, नीम, बैरी, शाह बलूत, ख़ूबानी, अनार, नारीयल, सेब ग़रज़ हर दरख़्त फलदार और ग़ैर फलदार वहां बमुताबिक़ वाफ़र मौजूद था।

    इस महल के सात दरवाज़े थे और इस में तीन सौ पैंसठ कमरे, बारह दालान, तीस सब्ज़ा-ज़ार, आठ हज़ार सात सौ साठ दरीचे और साठ फ़व्वारे थे। ख़ुद इस महल में चौबीस हज़ार सतून थे और हर सतून की ऊंचाई साठ गज़ थी। इस महल के सब्ज़ा ज़ार का संग फ़र्श, पियादा रो, नेमकत, मेज़-ओ-कुर्सी इबाग़, और फ़व्वारों से जड़े हौज़ सब मर्मरीं थे जिसमें सुर्ख़ और सब्ज़-रंग पानी इस हुस्न से झलकता था कि आँखों को तरवाट मिले, जिस्म में कफ़ीत ख़ुमार की बने ग़रज़ ये कि वो महल हर गाम जन्नत नज़ीर था।

    इस महल आलीशान में हर गाम इग़लाम पोशाक ज़रीं पहने, सर पर कुलाह-ए-कज, हाथ में प्याले मशरूब के पकड़े, चुस्त-ओ-चालाक और मुस्तइद जुमला अहकाम बजा लाने में हर-दम होशयार-ओ-तैयार थे। दीवानख़ाने में हर-सू मौसमी और ग़ैर मौसमी ख़ुशक-ओ-तर फल वाफ़र मौजूद था, पूरी फ़िज़ा मुअत्तर थी और इस गुलशन पर सह्र पर गोया ख्वाब का गुमाँ होने लगा।

    फिर मख़मूर जादू की बेटी, अल्मास जादू गई।

    उसे रूबा रो देखकर में दम-ब-ख़ुद रह गया कि जवान थी, तवील क़ामत थी और नाज़ुक इंदाम थी। इस परीरु का चेहरा किताबी और सुर्ख़ी माइल रुख़्सार गुलहाए बहार थे। आरिज़-ए-पर-नूर ख़लक़ से मस्तूर, गोया जाम इशराब था कि बादा गुल-रंग से पर बे-हिसाब था। इस के दाँत मोतीयों मुशाबेह, होंट याक़ूत, मुँह नून का नुक़्ता और कुंज-ए-दहन पर ख़ाल मशकीन ऐसा जो दलों को मोहल्ले।

    आँखें उस परीपीकर की चश्म-ए-आहू से कहीं तेराह तर थीं। मुझ लंबे जारोब रुख़्सार, आबरूएं पर ख़ुमार गोया दो शमशीरें ब्रहना आबदार, जैसे दो गनबद ख़ूबसूरत पा म्यूदार, या दो साग़र-ए-मय मक़लूब, गोया नीम कश दो कमान, जैसे जोड़ा क़ौस-ए-क़ुज़ह का रंग ब-रंग, या दो दरिया खंबा ख़म या जैसे लबाँ शीरीन गुल रोयाँ।

    इस के बाल तवील रेशमी स्याह जैसे शब-ए-दीजूर, मांग सीधी ताबां जैसे विसात-ए-समा में कहकशां। इस नाज़नीन ख़ंदा जबीन की गर्दन लंबी सुराही-दार थी, कमर अलिफ़ सूरत, ख़ालिक़ के तख़लीक़ का शाहकार थी और हाथ सीमीं ऐसे कि जो किसी शैय छू लें तो वो सोना बने। क़दम ऐसे जैसे बाद-ए-ख़ुनुक, सुबुक रफ़्तार जैसे मौज-ए- हवा पर सवार, सांस ऐसी कि अज़ जान-ए-रफ़्ता लोगों में जान डाल दे। ग़रज़ ये कि पूरा वजूद गोया नसीम-ए-सहर कामातुर झोंका।। जो लहर-लहर आते शब गिरिफ़ता,दर्द मंद, पर हैजान, पर-आशोब,आज़ुर्दा और रो बह गिर्ये दलों को क़रार बे शुमार दे।

    आराइश-ए-जमाल में लासानी उस परीवश का लिबास बेदाग़ और बे शिकन था, जिस्म से चिपका जैसे जुज़ु बदन था। गर्दन में ज़ंजीर तिलाई जिसमें जुड़ा नग अल्मास का था, कानों में आवेज़े सीमीं, हाथों पर तहरीर हिना की मौहूम और अंगुश्त हलक़ा में ख़त्म अलमास। पावं में पाज़ेब नुक़रई सुबुक, जूते तावस के परों से बने इस से कहीं सुबुक-तर।

    अज़ीज़ान जहान

    इस की बातों का सह्र ऐसा लाजवाब था कि सराब नख़लिस्तान बने और नख़लिस्तान सराब,आब शराब हो, आलम-ए-बेदारी ख्वाब हो और मुसख़्ख़र आफ़ताब हो। जो गुफ़्तगु करे तो मौसीक़ी से इस के पहाड़ वज्द में आजाऐं, तुयूर दम-ब-ख़ुद परवाज़ से बे-ख़बर गिर पढ़ें और ख़लक़ अंगुश्त बदंदाँ , मुतहय्यर, तस्वीर सूरत, सांस लेना भूल जाये।

    इस पर मुस्तज़ाद वो माह-ए-तलअत इल्म-ए-शेअर में ताक़, ज़कावत-ओ-दानाई में यकता, तर्ज़-ए-तकल्लुम में फ़क़ीद उल-मिसाल, जवाब और रद्द उल-जवाब में बेमिसल, तर्ज़-ए-नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त में बेनज़ीर, जुमला आदाब-ए-महफ़िल में यगाना मिसाल, ग़व्वसी और शहसवारी में लाजवाब, शमशीर ज़नी, तीर-अंदाज़ी-ओ-दीगर फ़ुनून-ए-हर्ब में मुनफ़रद और मुसव्विरी में लासानी थी। ये देखा तो इस पर फ़िदा दिल-ओ-जान से हो गया, रह सका, वास्ते अपने मतलब के अर्ज़ पर्दाज़ हुआ और मख़मूर जादूगरनी से इस का हाथ बह तरीक़ सुन्नत मांगा

    कहाँ बेजोड़ की बातें करते हो सिपाही ज़ादे, कहाँ मेरी फूल सी बेटी, उस की पर सुकून ज़िंदगी और कहाँ तेरी वलवलों से पर ज़िंदगी कि जब जी चाहा किस को कहाँ से आज़ाद किया। मैं जीते-जी अपनी बेटी को इस आग में झोंकों, ये तो मुझसे हरगिज़ होगा।

    ”आप भी कमाल करती हैं किस्तान देव को तो सबक़ में एक लहज़े में सिखा दूं और पाद शाहज़ादी को वहां से छुड़ा कर, उस के वालिद बुजु़र्गवार के पास पहुंचा कर सारी उम्र अल्मास जादू के साथ गुज़ारूँगा।

    ”आप कुछ भी कहीं, लगता ये है कि जितनी जान आपने इस मुहिम में खपाई है मुझे नहीं लगता कि आप रुक के बैठने वाले हैं। मैं तो कहूं भूल जा मेरी बेटी को। हम तो जब भी बेटी किसी को देंगे साथ अपनी सलतनत, ख़ुद्दाम और सारा सामान भी देंगे लेकिन महर अपनी मर्ज़ी का लेंगे

    बहुत देर तक हिल-ओ-हुज्जत होती रही और जब वो राज़ी हुई तो मैंने महर का पूछा।

    ”महर में तो हम ये कलीद ही लेंगे और वो भी मुअज्जल अगर मंज़ूर हो तो। मैंने देखा कि इस की नज़र मेरे गले में लटकी डोरी में कलीद पर थी

    ये सुना तो मैं चौंका अब मैंने जो निगाह की तो मुशाहिदा किया कि मख़मूर जादू की एक आँख स्याह जबकि दूसरी नीलम मुशाबेह थी और होंट दोनों सबज़, इस से मुझे कुछ खटका तो हुआ लेकिन फिर ये कह कर उस की बात मान ली कि कलीद में जब चाहूँ ले सकता हूँ यूं इस पर राज़ी हो कर तुरंत निकाह किया।

    जब इस फ़रीज़े से फ़ारिग़ हुआ तो उसने मेरी बलाऐं और कहा है लीं कितने दिनों से सफ़र में हो। मेरी सलाह है कुछ अपनी थकन उतारकर ताज़ा-दम हो जाऐ। मैंने भंवें यूं उठाएं जैसे पूछा कैसे? वो मेरा इशारा समझ गई और ख़ुद्दाम को इशारत की कि मुझे हमाम ले जाएं।

    बयान क़सर तिलसम के चार हमामों का

    इस महल में एक गोशा हमाम देखा, चार कमरे शुमाल जुनूब और मशरिक़ मग़रिब की सिम्त में और हर कमरे में लंबा चौड़ा, संगमरमर से बना, मशक वांबर से मुअत्तर, हज़ार मशालों से मुनव्वर, शफ़्फ़ाफ़ पानी से भराहौज़ और सतह आब पर गुलाब की पत्तियाँ निछावर।

    वहां हर-सू ख़ुद्दाम तोलीए रेशमी, ऊनी, क़ुतनी, अतुलसी हाथ में पकड़े, आँखें नीची किए खड़े थे। आजिज़ ने ये देखा तो बे-इख़्तियार अपना लिबास उतारा। जिस्म पर बस एक लँगोट रह गया जिस के नेफ़े में फ़क़ीर ने कलीद पिनहां रखी थी। मैं पहले हमाम में उतर गया जिसका नाम हमाम कसीफ़ था।

    इस हमाम का पानी नीम गर्म था और इस में अस्तिव खोदोस जैसी ताज़गी और ऊद की ख़ुशबू मिली जुली थी। गाहे-गाहे पानी ख़ून रंग जैसे शीराज़ का बादा अहमरीं हो जाता था और फिर शफ़्फ़ाफ़ ऐसे हो जाता था कि आईने का गुमान हो। वस्त में उस हमाम के एक चोबी तख़्ता था जिस पर एक तरफ़ चरमी तकिया लगा था और तख़्ते में जा-ब-जा गोल सुराख़ थे। जूंही मैंने तकिए पर सर रखा सुराख़ों में से फ़व्वारे फूट पड़े और में इस के सरवर में गुम हो गया।

    किनारे पर खड़े ख़ादिम मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुए

    किसी ने नाख़ुन तराशे और किसी ने मेरे बाल तराशे और किसी ने हजामत बनाई और किसी ने ख़त। एक ने मेरी मूंछों को तराशा और दूसरे ने ताव दरुस्त किया। एक ख़ादिम ने नाक और कान के बाल कमाल महारत से साफ़ कर डाले और एक बोतल से कोई महलूल मेरी बग़लों में मिल दिया और ज़ोरदार फ़व्वारे ने सारे ग़ैर ज़रूरी बाल साफ़ कर डाले। मैंने नज़र बचा कर बोतल से ख़ूब सारा महलूल अपनी हथेली पर उंडेला और जल्दी से अपने लँगोट में मिल लिया, एक ज़ोरदार फ़व्वारे ने अपना काम कर दिखाया और यूं अपने तईं हल्का महसूस किया।

    इसी अस्ना में दो और ख़ादिम मेरे पावं के नाख़ुन तराशने और एड़ी गुटिए की मेल उतारने में जुत गए। मैंने देखा कि इस नीम गर्म पानी के असर से मेरे बदन की कसाफ़त मेरे तमाम पूरों से निकल कर पानी में तहलील हो गई और आजिज़ ने महसूस किया कि एक फ़र्हत और ताज़गी मेरे बदन में ओद कर आई , असर से जिससे आजिज़ मख़मूर हो गया।

    इस आलम ख़ुमार में वक़्त जैसे थम गया और यूं लगा जैसे में कई दिन इस हमाम में रहा मैंने अपने आपको हल्का और पर सरवर और मख़मूर महसूस किया और अपने ऊपर अल्लाह की रहमत और इनायात का शुक्र अदा किया। चार खादिमों ने मुझे मशक में तर तौलियों से साफ़ किया और फिर मुझे दूसरे हमाम में ले गए जिसका नाम हमाम लतीफ़ था। अगरचे दूर से इस हमाम में पानी का गुमान होता था लेकिन वो भाप के मर गोले थे जैसे धुनकी हुई रोई के गाले जिसमें अंबर की ख़ुशबू मिली जुली थी

    जब मैं हमाम पर अंबर में उतरा तो मुझे यूं लगा जैसे में हवा में मुअल्लक़ हूँ और जब मैंने इस मुअत्तर सहाब में सांस ली तो रूह को फ़र्हत महसूस हुई। यूं लगा जैसे मैं सिपाही ज़ादा नहीं कोई फ़लसफ़ी हूँ जिसने दुनिया के उरूज-ओ-ज़वाल पर तफ़क्कुर किया जबर-ओ-क़दर, वजूद की एहमीयत-ओ-सबूत, ज़ात-ओ-सिफ़ात के माबैन रब्त, इलम की नौईयत और माख़ज़, उनकी तसदीक़ और इस की हदूद-ओ-इफ़ादीयत पर सैर-ए-हासिल तफ़क्कुर किया और ख़ुदा की हाकिमीयत और इस के वजूद पर अपनी दानिस्त में क़वी सवाल उठाए।

    मैंने सोचा ये दुनिया आदम से वजूद में ख़ुद बख़ुद आई और इस का सबूत मेरा इलम और फ़हम है। यहां मैंने अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा आलिम महसूस किया और अपने ऊपर मख़मूर जादू की इनायात का शुक्र अदा किया। अगरचे में वहां कुछ ही लम्हे वहां मुअल्लक़ रहा लेकिन मुझे यूं लगा जैसे सदीयां वहां रहा। शोमई क़िस्मत वहां से निकलते वक़्त अल्लाह का शुक्र अदा करना भूल गया।

    चार खादिमों ने मुझे मशक में तर तौलियों से साफ़ किया और फिर मुझे तीसरे हमाम में ले गए जिसका नाम हमाम ख़फ़ीफ़ था इस हमाम की छत शफ़्फ़ाफ़ थी और इस से पूरी वादी का नज़ारा किया जा सकता था। यहां ख़ुद्दाम ने मुझे गाव तकिया से आरास्ता एक मख़मलें मस्नद पर लटाया, दफ़्फ़ातन देखा कि दौर-ए-जहाँ मेरा ख़ेमा था वहां हज़ार शमएँ रोशन थीं और खे़मे पर दो मुस्तइद ख़ादिम पहरेदार चाक़-ओ-चौबंद लड़ने को हरदम तैयार खड़े थे, मेरे घोड़े को चारा खिलाने की सई करते हैं और दो और ख़ादिम उसको खरेरा करने को मुस्तइद लेकिन वो सबा रफ़्तार कि मेरा मुतीअ था और इस वक़्त तक चारा खाता था जब मालिक को पेट भरे ना देखे, इस से अहितराज़ बरतता था।

    तब मैंने एक सीटी से उसे ख़बरदार किया और उसने अपनी लंबी गर्दन उठाई और हिनहिनाया। फिर अपने सुम घास पर हल्के से मारे और चारा खाने का आग़ाज़ किया।

    यहां सब ख़ुद्दाम निहायत मुस्तइद्दी और महारत से अपना काम करते और कोई किसी से ग़ैर ज़रूरी कलाम नहीं करता था और मुझे उन सबकी शक्लें आपस में मिलती जुलती दिखाई देती थीं मगर मुझे क्या, मुझे अपने काम से काम था सो आँखें खुली और ज़बान बंद रखी।

    एक ख़ादिम जो देखने में कुहनामुशक लगता था कोरनिश बजा लाया और मेरे कान के क़रीब आकर यूं गोया हुआ।

    ”हुज़ूर का इक़बाल बुलंद हो अगर इजाज़त मर्हमत फ़रमाएं तो हशतरब को शाही अस्तबल ले जाएं और आपके हथियार शाही दीवान ख़ास पहुंचा दिए जाएं।

    मैंने सर की ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश से उसे इस्बात में इशारा किया।

    चूँकि आजिज़ ने दरबार-ए-ख़ास में एक उम्र गुज़ारी है और बादशाहों और शहज़ादों को इसी तरह सर हिलाते देखा है और अब निकाह के बाद जब मैं यहां का बादशाह ठहरा सो मुझे नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त और मुआमलात में वही कुछ मलहूज़ ख़ातिर रखना था जो बादशाहों के मर्तबे को शायां हो।

    हमाम ख़फ़ीफ़ में मेरे सारे बदन पर मुख़्तलिफ़ इक़साम के सफ़ूफ़ और महलूल कमाल महारत से यों मल दिए गए कि सब के सब जज़ब हो गए ओरिजिन की ख़ुशबू और तरावट से सारा बदन महक उठा। मुझे यूं महसूस हुआ कि मैं एक जवाँ-साल शहज़ादा हूँ।

    चार खादिमों ने मुझे मशक में तर तौलियों से साफ़ किया और फिर मुझे चौथे हमाम में ले गए जिसका नाम हमाम रदीफ़ था। इस हमाम में उतरा तो मौसीक़ी का दौर शुरू हुआ और आजिज़ ने तुर्कमानी ज़बान में बहार के आने का गीत सुना जिससे दिल बाग़ बाग़ हुआ। ख़ुद्दाम और कनीज़ें लगातार लज़ीज़ ताज़ा फलों के रस और ख़ुशक-ओ-तर मेवा-जात से मेरी ख़िदमत में बरसर-ए-पैकार थे कि यकायक एक तिलसमी खिड़की में शबिया इस मुग़न्निया की मेरे सामने आई और मैं इस के जिस्म के ख़द्द-ओ-ख़ाल में इतना महव हो गया कि दुनिया और मा फ़ेहा भूल गया और गोया बरसों उसी हालत में रहा।

    ये नज़ारात देखे तो अपने अक़ल और फ़हम परता दर्जा ग़ायत मुतफ़ख़र हुआ।

    देखा कि शाम अब ढल चुकी थी। सोचा अब शहज़ादी से मुलाक़ात के बाद ही मग़रिबीन अदा करूँ। हमाम से फ़ारिग़ हुआ तो क्या देखा कि दो नफ़ीस कनीज़ें बड़ी बड़ी गोल तशरीहयाँ उठाए खड़ी हैं। मेरे चेहरे पर इस्तिफ़सार के आसार देखे तो अब्रू की ख़फ़ीफ़ जुंबिश से इशारत की और बग़ली कमरे की जानिब चल दें। मैं भी उनके पीछे चला। क्या देखता हूँ कि एक बड़ा सा कमरा है जिसके दरोदीवार आईनों से बने थे और चोबी मेज़ों पर हर तरह के इतर-ओ-ख़ूशबोयात और आराइश का सामान था, दोनों कनीज़ें तश्तरियां चोबी मेज़ पर रखकर चली गईं और दरवाज़ा बंद हो गया

    पोश उठाया तो एक तश्तरी में मेरे लिए ख़िलात-ए-फ़ाखिरा थी जो रेशम वातुलस और मख़मल से बनी थी और इस पर तिलाई धागे से दीदा जे़ब कढ़ाई की गई थी,उस के बंद पुखराज के थे, किम-ख़्वाब का पाएजामा जिसके अतराफ़ दिल मोह लेने बेल-बूटे बने थे, कमरबंद अत्लस का जिस प्रबेश क़ीमत मोती और जवाहर जड़े थे।

    ख़िलात मेरे बदन पर यूं सजी जैसे मेरे ही लिए बनी हो, एक मख़मलें रेशम की कुलाह थी जिस पर ताज नसब था, ताज के माथे पर इक बैज़वी फ़ीरोज़ा जबकि दोनों अतराफ़ में लाल-ओ-याक़ूत जड़े थे। अब जो पहन कर अपने ऊपर निगाह की तो बे-इख़्तियार फ़ातिह हिंद मुहम्मद बिन क़ासिम का गुमान हुआ कि आईने में एक नौख़ेज़ शहज़ादा गुलफ़ाम मेरे सामने खड़ा था।

    दूसरी तश्तरी में अशर्फ़ियों से भरी चंद थैलियां थीं जो मैंने ख़िलअत की जेबों में डाल लें। एक निहायत ख़ूबसूरत सच्चे मोतीयों की माला देखी तो यकायक कलीद याद आई जिसे माला में पिरो कर गले में लटकाई। जी में ख़्याल किया कि अल्मास जादू से मिलों तो ये किलीद और चमकती माला उसे दूं, इसी ख़्याल से कमरे से बाहर आया। देखा तो वही कुहनामुशक ख़ादिम सामने तिलाई गुर्ज़ लिए खड़ा था, मुझे देखते ही कोरनिश बजा लाया, मैंने अशर्फ़ियों की एक थैली उस को थमा दी वो आगे चला और में इस के पीछे।

    चारों तरफ़ से फ़िज़ा में यकायक मौसीक़ी गूँजना शुरू हो गई, हर-सू मुबारक हो पादशाह सलामत का इक़बाल बुलंद हो, हटो बचोगे वग़ैरा वग़ैरा की सदाएँ बुलंद हुईं, शहनाइयाँ बज रही थीं और आतिशबाज़ी की जा रही थी, तमाम रास्ता फूलों से आरास्ता था जिसके दोनों अतराफ़ कनीज़ें मुझ पर-गल पाशी कर रही थीं। मैंने बाक़ी अशर्फ़ियां इन कनीज़ों पर निछावर कर दें और यूं चलता हवा में शाही दीवानख़ाने तक आया जहां ज़याफ़त का इंतिज़ाम किया गया था।

    कमरा ज़याफ़त देखा जिसमें मसनदें लगीं थीं और हर नौ खाने चुने गए थे एक तरफ़ भुने बटेर, बकरे दमपुख़त, क़त्ले, मुर्ग़-ए-मुसल्लम, बिरयानी चहार क़िस्म, कई क़ाब ज़रदे के, कबाब, मुर्ग़ के, बकरे के और मछली के, बाक़िर ख़ानी और पराठे कई किस्म के।

    दूसरी तरफ़ पुलाव चार किस्म के; यख़नी, कोरमा, मुतंजन, और कूकू। वहीं कई क़ाब धरे देखे जिनमें दो पिया ज़ह, नर्गिसी कोफ्ते, बादामी और ज़ाफ़रानी रोटियाँ कई किस्म की, साथ नान सादा, रोगी-ओ-बेसनी और तंदूरी गर्म पड़े थे। पास ही खाने में हलीम, हरीसा, रोग़न जोश, कोफ्ते, कोरमा पुलाव, मुतंजन और दाएं जानिब मुर्ग़ के तिक्के , ख़ागीना, मलग़ूबा शब देग, समोसे, व्रती, फ़िर्नी, शेर बिरिंज, मिलाई, हलवा, फ़ालूदा, पन भत्ता, निमिष, आब शोरा, साक़ अरूस, लू ज़य्यात, मुरब्बा अचार दान, दही की क़लफ़ीयाँ और इस के पीछे पान-दान, इतरदान, चंगेरीं, पीकदान पड़े थे।

    दीवान ख़ास में हर तरफ़ हज़ारों मेहमान क़ीमती लिबास ज़ेब-ए-तन किए निहायत सलीक़े से मसनदों पर बिराजमान तनावुल के लिए मेरे मुंतज़िर थे। फ़क़ीर ने दिनों बाद ये सब देखा तो ख़ूब सैर हो कर खाया और जब हाथ खींच लिया तो दो ख़ुश शक्ल कनीज़ों ने चलमची और आफ़ताबा पेश किया और मैंने अपने हाथ धोए। क़ाअदा है जब शिकम पर हो तो सुस्ती छा जाती है यूं इरादा आराम का किया। बाद अज़ इस्तिराहत कलीद गले में लटकाए एक उजलत और तबईत के लगाव से, हुज्रा उरूसी में दाख़िल हुआ।

    बयान अल्मास जादूद से असल मुलाक़ात का, शब असल की बात का

    हुज्रा उरूसी फूलों से मुअत्तर था जिसमें एक क़ालीन असफ़हानी बिछा था और छत से एक फ़ानुस तिलाई आवेज़ां था जिसमें हज़ार काफ़ूरी शमएँ रोशन थीं। कमरा किया था बाग़ था, बाग़ में एक नौख़ेज़ फूल था , नाशगुफ़्ता, लब-ए-लालीं उस के बंद।

    उनका के परों से सजी एक मसहरी इस कमरे के वस्त में थी, तकिए जिसके फूलों और मख़मल से बने थे और इस पर बैठी थी गुलशन हसन और वो भी इस सूरत कि आधा चेहरा ढका आधा खुला, कानों में आवेज़े तिलाई, हाथों पर हिना के बेल-बूटे।। पावं में पाज़ेब, लिबास गोया जुज़ु बदन, नाख़ुन से नाख़ुन खर्चते, होंट काटते उस की नज़रें नीची, साँसें मद्धम, जिस्म का अंग अंग उस के लिबास उरूसी में मानिंद क़ुरस माह झलकता था और फ़क़ीर की हालत ये सब देखकर दगरगों हो गई।

    बैत

    नूर ही नूर था बदन उस का

    सब का सब पैरहन से छिन आया

    मैं आहिस्ता-आहिस्ता उस की तरफ़ बढ़ा तो वो सिमटी, मैंने हाथ थामना चाहा तो उसने अपने हाथ खींचे और लजाई, मैंने घूंगट उठाना चाहा तो मुँह दूसरी तरफ़ फेरा और शरमाई और बावजूद कोशिश के मेरे हाथ आई। इस पर आतिश-ए-शौक़ और भड़की और फ़क़ीर ने इसरार बे शुमार किया तो मुँह फेर कर झूट-मूट की नाराज़ हुई।

    ”ए है,अरे ऐसे कैसे, आपसे जान पहचान, मुँह धो रखीए आप तो पाद शाहज़ादी अंदलीब के शैदाई हैं और इस छनाल की फ़िक्र में मरे जाते हैं आप, मेरी आपको क्या फ़िक्र आप तो इस आवारा कंचनी को छुड़ाने के जतिन करते हैं और इस कोशिश में आपकी जान भी जाये, आपको क्या फ़िक्र कौन मरे कौन जीए ۔

    मैं, फ़र्त जज़बात में दीवाना हुआ

    ”मेरे दिल की क़रार वो तो बस एक फ़र्ज़ है कि इस को किस्तान देव की क़ैद से छुड़ाओं, फिर तो मेरी तमाम उम्र आपके पहलू में है।

    आप का क्या एतबार फ़र्ज़ से सबकदोश होते होते मुझे छोड़ किसी और के हो जाएं।

    फिर एक दम जैसे चौंकी

    ”और हमारा महर कहाँ है ? कोई हियल-ओ-हुज्जत नहीं चलेगी, हमारा महर मुअज्जल है ?

    ये सुना तो दफ़्फ़ातन याद आया और मोतीयों की माला अपने गले से उतार कर उसे पेश की, उसने फ़ौरन झपटना चाही मगर मैं एक सिपाही ज़ादा इस तरह के दाव पेच में माहिर उस को झुकाई देकर पीछे हो गया और मसहरी के साथ खड़ा हो गया और कहा:

    ”ए है,अरे ऐसे कैसे, ना आपसे जान ना पहचान

    मैंने उस की बात उसी को लौटा दी और सोच में पड़ गया। यकदम ख़्याल आया और इस की तरफ़ नज़र की।

    ”गिल-बदन नाज़नीं को तो महरमें अपने हाथ से ही पहनाव निगह

    ये सुनते ही उसने दोनों शानों से अपने बाल समेट कर एक जानिब किए और गर्दन झुका दी, जो मंज़र मेरी आँखें देखने को तरस रही थीं वो अब मेरे बिलकुल सामने था। मेरी गर्म साँसें उस की गर्दन पर,जहां इक हासिल-ए-ग़ज़ल तल था,तीर बरसा रही थीं।मैंने उस के कान की लू सुर्ख़ होती महसूस की और साँसें बे-तरतीब सुनें।

    इस के बदन से उठती आँच की लू से मेरे गाल तमतमा उठे। देखा कि माला जैसे ही इस का जुज़ु बदन बनी और किलीद उस की सुराही-दार गर्दन से फिसलते फिल्सते, नशेब-ओ-फ़राज़ से बचते बचाते वहां जा लगी जहां फ़क़ीर का दिल, आँखें और ध्यान लगा हुआ था।

    जब मैंने किलीद उस के क़बज़े में दे दी तो मुझे कुछ हौसला हुआ और मैंने अपना इंदीया दुहराया।

    वो मसहरी से उतर कर खड़ी हुई और कोरनिश बजालाई, अल्मास ने पहली बार आँखें उठा कर मेरी तरफ़ देखा तो मुस्कुरा कर बोली

    वाह आप तो बिलकुल शहज़ादाह गुलफ़ाम लग रहे हैं।

    मैंने सोचा गो तअल्ली है मगर बात ख़ुदा-लगती है।वो ख़ुद ही आगे बढ़ी और मेरे गले से लिपट गई और मख़मूर आवाज़ में यूं गोया हुई।

    ”मेरे गुलफ़ाम मुझे आप ही की तलाश थी और अब मैं आपके सिवा ज़िंदगी का तसव्वुर भी नहीं कर सकती।

    अब वो मेरी बाँहों में थी फ़क़ीर अपने ऊपर क़ाबू ना रख सका और नज़र उस के दोनों कंधों के दरमयान बंद-ए-क़बा पर पड़ी। मेरी नज़रें वहां गड़ी देखें तो वो श्रम से पानी पानी हो गई। कुछ नाराज़गी कुछ मनाना, कुछ लजाहट कुछ शर्माहट।। हमारे बीच हिजाब उठ गए। वो मेरा लिबास में इस का, हमने ज़िंदगी के सरवर को चखा। तो मुहब्बत के तालिब, कभी मग़्लूब कभी ग़ालिब, यक-जान दो क़ालिब हो गए।

    अज़ीज़ान जहान

    मैंने इस गुल-बदन के होंटों की मिठास को मानिंद अंगबीन पाया कि उनकी हलावत से मेरे होंट मिस्री की डलियां बन गए, उस के बदन को मानिंद गुलशन पाया जिसकी सैर से दिल सैर हुआ, और इस की आँखों को मै के प्याले जाना जिसके सरवर से सारी रात मसरूर, मस्त वमख़मोर् रहा।

    क़िस्सा मुख़्तसर शब-ए-वस्ल कोताह ही रही और इस से पहले कि सुब्ह-ए-सादिक़ हो सुरूरो मस्ती और सुकून से चूर नशे में मख़मूर हम दोनों नींद की आग़ोश में झोल रहे थे।

    बैत

    बस आशिक़ आशुफ़्ता आसूदा-ओ-ख़ुश ख़ुफ़ता

    दर साया आन ज़ुल्फ़ी को हलक़ा-ओ-ख़म दारद

    जब आँख खुली तो ज़वाल को दो घड़ियाँ बीत चुकी थीं और मेरा दिल धक से रह गया।। मैं इस दिन अपनी ज़िंदगी में पहली बार फ़रीज़ा सह्र की अदायगी से यकसर महरूम रहा।

    अल्मास कमरे में मौजूद थी। फ़र्श पर हर-सू गुलाब की पत्तियाँ बिखरी पड़ी थीं। मैंने ब-सद सुरअत बग़ली हमाम का रुख किया और ख़ुद्दाम को हुक्म दिया कि मेरा घोड़ा और हथियार ले आएं और अल्मास की कनीज़ ख़ास को पैग़ाम दिया जाये कि अल्मास मुझे महल के पिछले दरवाज़े पर मिले और इस हुक्म की तामील ब-सद सुरअत हुए।

    ख़ादिम कोरनिश बजा लाए और हुक्म की तामील को लपके।

    ग़ुसल से फ़ारिग़ हो कर मैं ने अल्लाह का नाम लिया और घोड़े पर ज़ैन किसी, ख़ुद-सर पर जमाया, तलवार नयाम से खींच कर दोबार अंदर की, ख़ंजर कमर में हमायल किया, रिकाब में पैर जमा के घोड़े पर सवार हुआ और बुरज का क़सद किया। महल के पिछले दरवाज़े पर अल्मास मेरी मुंतज़िर थी, मेरे क़रीब आई और घोड़े की बागें थाम, अपनी मख़मूर अनखों से मेरी तरफ़ देखा।

    मैं तेरे फ़िराक़ में कैसे ज्यूँ? तो किस मुहिम में जान खपाता है ? तो अगर इस कलीद से इस पछल पैर अंदलीब को आज़ाद करने की जतिन करता है, सोकर, लेकिन एक शब मेरे साथ और गुज़ार, फिर पता नहीं ये ख़लवत मयस्सर भी हो, हो, मुझसे मुहब्बत करोगे भी या नहीं।

    ये कहते हुए उस की आँखों से आँसू बह पड़े और मेरा दिल पिघल गया

    घोड़े से उतर कर उसे बाँहों में लिया।

    ”ए आँखों की नूर, दिल की सरवर, मुजस्सम हूर का है को तेरे दिल में शक का ये बीज पलता है? मुझे इस मुहिम का आख़िरी ज़ीना चढ़ने दो, फिर सारी उम्र में तेरे साथ गुज़ारूँ।

    मैंने ये कहा तो उसने मुँह फेर लिया और कलाम से इजतिनाब बरता। मैंने उसे जी भर के दलायल दीए लेकिन इस का कलाम नापैद और मुँह दूसरी तरफ़ फेर बैठी रही, मेरी दलीलें कारगर ना हुईं।

    मैंने सोचा

    इस नाज़नीन से में क्या बेहस करूँ कि इस की एक अंगड़ाई फ़लसफ़े की इन-गिनत दलीलों का कारी जवाब है, इस की एक मुस्कुराहट आहन सूरत दिलों को मोम की मानिंद पिघला दे और पुख़्ता तरीन अक़्लों को रंगीन धुनकी ऊन की तरह उड़ा दे।

    मुझे ख़ामोश पा कर उसने मुहब्बत से देखा और फिर आँचल सरका कर कलीद मुझे दिखाई और आँखों ही आँखों में इशारत की कि उठा लू। मैंने कलीद को छुवा तो फ़क़ीर का दिल मोम हो गया। मैंने यक-बारगी अपने हथियार खोले और एक रात और इस के पहलू में इस मुसम्मम उर्दए से गुज़ारने का तहय्या इस शर्त पर किया कि सुबह हर हालत में पाद शाहज़ादी अंदलीब को किस्तान देव के चंगुल से छुड़ाने इस बुरज जाउंगा और देव को तलवार की एक ज़रब से जहन्नुम वासिल करके, पाद शाहज़ादी को छुड़ा कर, उसे महल हज़ार दीचे में पहुंचा कर वापस अल्मास के पहलू में आउं।

    उल-मुख़्तसर वो रात भी इसी क़ाएदे से हंसी ख़ुशी कटी और फ़रीज़ा सहरी से यकसर ग़ाफ़िल रहा।

    अज़ीज़ान मन

    तब तो ये हालत है कि मैं हर दोपहर ये मुसम्मम इरादा कर के उठता हूँ कि आज ही किस्तान देव से पाद शाहज़ादी अंदलीब को छुड़ा लाउंगा। सो इसी इरादे से अपने हथियार बाँधता हूँ, दस्त-ए-शमशीर पर हाथ रखता हूँ, ज़ैन बाँधता हूँ, रिकाब में पाउं जमा कर घोड़े पर सवारी का इरादा करता हूँ और दिल में सोचता हूँ तिलसमी क़िले का बुरज बस चंद ही कोस तो दूर है और ये काम तो बस दो पलक झपकूँ हो जाएगी है और फिर बुरज की कलीद इस गुलशन हुस्न से लेने का मुसम्मम इरादा करता हूँ।

    फिर उस गुल रुख के मीठे होंट, साग़र सिफ़त आँखें, सीना गोया बाग़ बाग़ में कंवल के दो फूल, उन पर बैठी दो बीर बहूटियां, पेट जैसे संदल की तख़्ती, तख़्ती पर धरा पियाला, प्याले में मै, गोया आब-ए-हयात। ज़ुल्फ़ें हलक़ा दर हलक़ा ताबदार, असल में डूबा बदन, शब गुज़शता की पर ख़ुमार हिकायत, सदाबहार जवानी और इस की बेलौस मुहब्बत सब के सब मेरे पावं की ज़ंजीर बन जाते हैं।

    तब मैं घोड़े पर सवारी का इरादा तर्क करता हूँ, हथियार खोल कर सिर्फ एक रात और गुज़ारने का क़सद करता हूँ और इस शब हिद्दत-ए-आग़ोश उमा वश उपर आतिश-ओ-पर शहवत फ़तना ख़ेज़ के जादू के असर से फ़रीज़ा सह्र से ज़रूर कोताही बरतता हूँ और फिर सुबह अपने तईं मलामत करता हूँ, कोसता हूँ। सोचता हूँ आख़िरता कुजा इस गिर्दाब हुस्न-ओ-जमाल में फंसा अपने फ़र्ज़ से ग़फ़लत बरतूँ?

    आज भी उठकर, अपने आपको ख़ूब कोस कर, ये मुसम्मम इरादा मैंने दिल में बाँधा है कि हो हो पाद शाहज़ादी अंदलीब को किस्तान देव के चंगुल से ज़रूर आज़ादी दिलवा कर, उसे महल हज़ार दरीचा में बहिफ़ाज़त पहुंचा कर ईरान की सलतनत सुलतान ईरान से लेकर, कुछ अरसा वहां हुकूमत करके इंतिज़ाम अपने क़ाबू में करके, अपने एक पर एतिमाद वज़ीर के हवाले करूँगा।

    इस अमर से फ़राग़त पा कर मैं हिंद और अरबिस्तान के क़लमरू की तरफ़ एक होशयार सरहंग भेज कर बुज़ूर शमशीर उनकी हुकूमत अपने हाथ में लूँगा और उनके बेश-बहा ख़ज़ानों को अपने तसर्रुफ़ में लाउंगा। इस के बाद में जुनूँ परी-ज़ादों को साथ मिला कर, एक लश्कर अज़ीम तैयार कर के दुनिया में अल्लाह की ख़िलाफ़त का आग़ाज़ करूँगा। तो यूं इरादा है कि देन-ओ-दुनिया की पूरी तदबीर करके वापस अल्मास जादू के पास आउंगा और इस के साथ बाक़ीमांदा ज़िंदगी यक-जान दो क़ालिब गुज़ारूँगा। दिन गुज़रते गए, और पलक झपकते इसी कश्मकश में पूरे दस साल उस की शीरीं क़ुरबत में बीत गए।

    अब मैं एक महल में रहता हूँ जहां मेरा हुक्म चलता है।। मुझे हर चीज़ हर सहूलत मुहय्या है। मेरे पहलू में सदा जवान रहने वाली एक नाज़नीन ज़ुहरा जबीन है और पैवस्त मेरे दिल में इस की इलतिफ़ात का तीर है और इस के लबों में इतना ख़ुमार है कि मै कुहना सद साला से ज़्यादा पर तासीर है। इस ख़ंदा जबीन पर सौ जान से फ़िदा ये फ़क़ीर है, इस की ज़ुल्फ़ गिरह ग़ैरुका दाइम असीर है।

    बैत

    फ़ुर्सत कश्मकश मिद्दा उन दिल बेक़रार

    यक दो शिकन ज़्यादा कुन गेसू-ए-ताबदार रा

    अज़ीज़ो मैं क्या करूँ

    इस की आँखों में वो जादू है कि हज़ारों जादूगरनियां उस का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं। इस के जिस्म में वो ख़ुशबू है कि मैं जब सांस लेता हूँ तो इस की मुअत्तर तासीर से जीता हूँ। मेरी हर सांस और मेरा वजूद उस के वजूद से इबारत है।

    सोचता हूँ बस बहुत हो चुका, बहुत ही ज़्यादा हो चुका

    तो ख़ुलासा कलाम का ये है कि आज ख़मर कल अमर।अब ये मेरा मुसम्मम इरादा है और इस में कोई कोताही नहीं होगी कि अब तो बल्कि इस में शक का कोई इमकान ही नहीं कि बस आज की रात गुज़ार के मैं कल हर सूरत ज़रूर बालज़रूर घोड़े पर ज़ैन किस कर, ख़ुद-सर पर जमाकर, तलवार नयाम में, ख़ंजर कमर में हमायल, रिकाब में पैर जमा के घोड़े पर सवार हो के अल्मास से कलीद और इजाज़त लेकर बुरज जाउंगा और अंदलीब को रिहाई दिला के रहूँगा और ये हो के रहेगा।

    बैत

    ऐन नुक्ता रा शनासद आन दिल कि दर्दमंद अस्त

    मन गरचे तौबा गुफ़्तम, नशिकस्ता उम सुबू रा

    ગુજરાતી ભાષા-સાહિત્યનો મંચ : રેખ્તા ગુજરાતી

    ગુજરાતી ભાષા-સાહિત્યનો મંચ : રેખ્તા ગુજરાતી

    મધ્યકાલથી લઈ સાંપ્રત સમય સુધીની ચૂંટેલી કવિતાનો ખજાનો હવે છે માત્ર એક ક્લિક પર. સાથે સાથે સાહિત્યિક વીડિયો અને શબ્દકોશની સગવડ પણ છે. સંતસાહિત્ય, ડાયસ્પોરા સાહિત્ય, પ્રતિબદ્ધ સાહિત્ય અને ગુજરાતના અનેક ઐતિહાસિક પુસ્તકાલયોના દુર્લભ પુસ્તકો પણ તમે રેખ્તા ગુજરાતી પર વાંચી શકશો

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