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ग़ज़ल
मुशाहिद को लगा आसान है तूफ़ान में उड़ना
ज़मीं से अर्श तक दूभर परिंदे से ज़रा पूछो
हिमांशु पांडेय
ग़ज़ल
हूँ शाहिद-ए-तंज़ीहा के रुख़्सार का पर्दा
या ख़ुद ही मुशाहिद हूँ कि पर्दे में छुपा हूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
अकबर इलाहाबादी
शेर
एक हो जाएँ तो बन सकते हैं ख़ुर्शीद-ए-मुबीं
वर्ना इन बिखरे हुए तारों से क्या काम बने