aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "राई"
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता हैसितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सिमट कर पहाड़ उन की हैबत से राईदो-आलम से करती है बेगाना दिल को
किसी गाँव में शंकर नामी एक किसान रहता था। सीधा-सादा ग़रीब आदमी था। अपने काम से काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में, छक्का-पंजा न जानता था। छल-कपट की उसे छूत भी न लगी थी। ठगे जाने की फ़िक्र न थी। विद्या न जानता था। खाना मिला तो खा लिया न मिला तो चरबन पर क़नाअत की। चरबन भी न मिला तो पानी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। मगर जब कोई मेहमान दरवाज़े पर आ जाता तो उसे ये इस्तिग़्ना का रास्ता तर्क कर देना पड़ता था। ख़ुसूसन जब कोई साधू महात्मा आ जाते थे तो उसे लाज़िमन दुनियावी बातों का सहारा लेना पड़ता। ख़ुद भूका सो सकता था मगर साधू को कैसे भूका सुलाता। भगवान के भगत जो ठहरे।एक रोज़ शाम को एक महात्मा ने आकर उसके दरवाज़े पर डेरा जमा दिया। चेहरे पर जलाल था। पीताम्बर गले में, जटा सर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, ग़रज़ कि पूरा भेस उन महात्मा का सा था जो रऊसा के महलों में रियाज़त, हवा-गाड़ियों पर मंदिरों का तवाफ़ और योग (मुराक़िबा) में कमाल हासिल करने के लिए लज़ीज़ ग़िज़ाएँ खाते हैं! घर में जौ का आटा था, वो उन्हें कैसे खिलाता? ज़माना-ए-क़दीम में जौ की ख़्वाह कुछ अहमियत रही हो, मगर ज़माना-ए-हाल में जौ की ख़ूरिश महात्मा लोगों के लिए सक़ील और देर-हज़्म हुई है, बड़ी फ़िक्र हुई कि महात्मा जी को क्या खिलाऊँ?
दिन को दिन समझी और ना रात को रातपाला किस किस तरह तुम्हें जानी
राई ज़ोर-ए-ख़ुदी से पर्बतपर्बत ज़ोफ़-ए-ख़ुदी से राई
पलंग के दाहिने जानिब कुछ पुराने क़िस्म के मोंढे रखे हुए हैं जिन पर हाली, शेफ़्ता, हकीम अहसन उल्लाह ख़ां साक़िब और नवाब ज़िया उद्दीन अहमद ख़ां बैठे हुए हैं। ग़ालिब पलंग पर उम्दा छींट की रज़ाई ओढ़े लेटे हैं, दोनों घुटने खड़े हैं, पूरा जिस्म ढका है सिर्फ़ चेहरा खुला है आँखें नीम-वा हैं। बेहोशी की सी कैफ़ियत है। हलक़ से ख़र-ख़र की आवाज़ बराबर आरही है। सिरहाने एक नौकर चारखाने का बड़ा रूमाल लिए मक्खियां झल रहा है।
तू पास और घर दूर है तेराराह तिरी दुश्वार और सुकड़ी
भूल कर भी जो कोई लेता है रिश्वत चोर हैआज क़ौमी पागलों में रात दिन ये शोर है
एक से एक मिले तो राई बन सकती है पर्बतसाथी हाथ बढ़ाना
दूसरे ही दिन से माहिर-ए-ग़ालिबयात ने, “आप ग़ालिब को ग़लत समझे हैं।” के उनवान से मेरी बाक़ायदा तालीम शुरू कर दी। सवेरे मैं बिस्तर ही पर होता कि वो ‘लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर’ पर धावा बोलते आ पहुँचते और पहले ग़ालिब के कुछ इंतिहाई संगलाख़ अशआर पढ़ कर उनके मअनी मुझसे पूछते, गोया मेरा आमोख़्ता सुनते और फिर क़ब्ल इसके कि मैं एक लफ़्ज़ भी अपनी ज़बान से निकाल पाऊँ, वो “आप ग़ालिब को ग़लत समझे हैं।” फ़रमाकर उनके मअनी और मतालिब ख़ुद बयान करना शुरू कर देते और फिर अपनी ‘गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़तार’ से जिद्दत आफ़रीनी, हुस्न-ए-तख़य्युल, लुत्फ़ बयान, शिकवा-ए-अलफ़ाज़, बलंदी-ए-परवाज़ी, नुदरत-ए-कलाम बल्कि फाँस को बाँस और राई को पहाड़ बनाने के ऐसे-ऐसे ‘गुल कुतरते’ कि मेरे लिए ‘साइक़ा-ओ-शोला-ओ-सीमाब’ का आलम हो जाता और वो ख़ुद इस शे’र की मुजस्सम तफ़सीर बन कर रह जाते,आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
आजकल खाते-पीते घरानों में दुबले होने की ख़्वाहिश ही एक ऐसी सिफ़त है जो सब ख़ूबसूरत लड़कियों में मुश्तर्क है। इस ख़्वाहिश की मुहर्रिक दौर-ए-जदीद की एक जमालियाती दरयाफ़्त है, जिसने तंदुरुस्ती को एक मर्ज़ क़रार देकर बदसूरती और बद हैअती से ताबीर किया। मर्दों की इतनी बड़ी अक्सरियत को इस राय से इत्तफ़ाक़ है कि उसकी सेहत पर शुबहा होने लगता है जहां यरक़ान हुस्न के अज्ज़ा-ए-तर्कीबी में शामिल हो जाये और जिस्म बीमार-ओ-तन-ए-लाग़र हुस्न का मेयार बन जाएं, वहां लड़कियां अपने तंदुरुस्त-ओ-तवाना जिस्म से शरमाने और बदन चुरा कर चलने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। यूं समझिए कि हव्वा की जीत का राज़ आदम की कमज़ोरी में नहीं बल्कि ख़ुद उसकी अपनी कमज़ोरी में मुज़मिर है। अगर आपको ये निचुड़े हुए धान-पान बदन, सुते हुए चेहरे और सूखी बाँहें पसंद नहीं तो आप यक़ीनन डाक्टर होंगे। वर्ना अहल-ए-नज़र तो अब चेहरे की शादाबी को वर्म, फ़र्बही को जलंधर और पिंडली के सुडौल पन को “फ़ीलपा” गरदानते हैं।
एक दिन राह पे जा पहुँचे हमशौक़ था बादिया-पैमाई का
हमेशा रात गए अपने घर को आते हैंलबों से सीटी बजाते हैं गुनगुनाते हैं
इस दौर में भी मर्द-ए-ख़ुदा को है मयस्सरजो मो'जिज़ा पर्बत को बना सकता है राई
हमें बर्बादियों पे मुस्कुराना ख़ूब आता हैअँधेरी रात में दीपक जलाना ख़ूब आता है
मुसीबत ये है कि रेडियो सेट ससुराल में भी है और वहाँ की हर दीवार गोश दारद, मगर बुज़ुर्गों का ये मक़ूला उस वक़्त रह-रह कर उकसा रहा है कि बेटा फांसी के तख़्ता पर भी सच बोलना, ख़्वाह वो फांसी ज़िंदगी भर की क्यों न हो, मौज़ू जिस क़दर नाज़ुक है उसी क़दर अख़लाक़ी जुर्रत चाहता है। और इस अख़लाक़ी जुर्रत का नतीजा भी मालूम, कि ससुराल की आँखों का तारा, ख़ुशदामन साहिबा का राज-दुलारा इस तक़रीर के बाद फिर शायद ही ससुराल में मुँह दिखाने के क़ाबिल रह जाये। हर-चंद कि हिफ़्ज़-ए-मातक़द्दुम के तौर पर आज ससुराल वालों को सिनेमा के पास लाकर भी दे दिए हैं। और रेडियो सेट का एक बल्ब भी एहतियातन जेब में डाल लाए। मगर ये सब कुछ ससुराल के एक घर में हुआ है और घर ठहरे वहाँ दर्जनों, ज़ाहिर है कि कोई न कोई तो ये तक़रीर सुन ही लेगा। और फिर ससुराल ट्रांसमीटर से नमक मिर्च लगा कर ये तक़रीर नशर होगी, बीवी का मुँह फूल जाएगा। उनकी वालिदा की सर्द आहें मुहल्ला भर को फ़्रीजेडियर बनाकर रख देंगी, उनकी ख़ाला गर्दन हिला हिलाकर और आँखें मटका मटकाकर फ़रमाएंगी कि मैं न कहती थी कि दामाद आस्तीन का साँप होता है। आख़िर कब तक न फुंकारता। सारा किया धरा मालियामेट करके रख दिया कि नहीं। मगर अब तो जो कुछ हो सच बोलना ही पड़ेगा। उन लोगों का वहाँ ज़िक्र नहीं जो ससुराल में मुब्तला हो चुके हैं। बल्कि मुख़ातिब वो हैं जिनको अभी वासिल ब ससुराल होना है कि,ऐ ताज़ादार दान-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल
गो जवानी में थी कज-राई बहुतपर जवानी हम को याद आई बहुत
राई का बना के एक पर्बतअब उस पे यूँही फिसल रहा हूँ
मिरे दामन को वुसअ'त दी है तू ने दश्त-ओ-दरिया कीमैं ख़ुश हूँ देने वाले तू मुझे कतरा के राई दे
मोती मूंगे कंकर पत्थर बचे न कोई भाईसमय की चक्की सब को पीसे क्या पर्बत क्या राई
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