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ग़ालिब जन्नत में

सिराज अहमद अलवी

ग़ालिब जन्नत में

सिराज अहमद अलवी

MORE BYसिराज अहमद अलवी

    ग़ालिब की मौत 
    पस-मंज़र: एक सेह-दरा दालान है जिसके सामने एक बड़ा सेहन है। दालान के दरूँ ‎में अंदरूनी जानिब पर्दे आधी मेहराब तक बंधे हुए हैं। दालान के वस्त में एक पलंग है ‎जिसका सिराहना शुमाल की सिम्त है, पलंग पर गद्दा बिछा हुआ है और सफ़ेद चादर ‎चारों तरफ़ कल्ला बत्तूं की डोरियों से पायों में बंधी हुई है। पलंग से मिला हुआ तख़्तों ‎का चौका है जिस पर दरी बिछी हुई है और उस पर साफ़ फ़र्श है जो चारों कोनों पर ‎मीर फ़रोशों से दबा है। सदर में बड़ा गाव तकिया क़रीने से रखा है। सामने साफ़ ‎उगालदान रखा है, उगालदान से कुछ ऊपर पलंग से नज़दीक ख़ासदान रखा है जिसके ‎ऊपर बहुत नफ़ीस तार का काम किया हुआ है। एक काग़ज़गीर में ख़त लिखने का ‎काग़ज़ दबा हुआ पास ही रखा है। 
    ‎ 
    पलंग के दाहिने जानिब कुछ पुराने क़िस्म के मोंढे रखे हुए हैं जिन पर हाली, शेफ़्ता, ‎हकीम अहसन उल्लाह ख़ां साक़िब और नवाब ज़िया उद्दीन अहमद ख़ां बैठे हुए हैं। ‎ग़ालिब पलंग पर उम्दा छींट की रज़ाई ओढ़े लेटे हैं, दोनों घुटने खड़े हैं, पूरा जिस्म ढका ‎है सिर्फ़ चेहरा खुला है आँखें नीम-वा हैं। बेहोशी की सी कैफ़ियत है। हलक़ से ख़र-ख़र ‎की आवाज़ बराबर आरही है। सिरहाने एक नौकर चारखाने का बड़ा रूमाल लिए ‎मक्खियां झल रहा है। 
    ‎ 
    यकायक ज़ोर की ख़र-ख़र के साथ ग़ालिब चौंकते हैं और आँखें खोल देते हैं। हाली ने ‎आगे बढ़कर एक पर्चा पेश किया। नवाब अलाउद्दीन ख़ां लोहारू का ख़त इस्तिफ़सार ‎हाल व तलब ख़ैरियत का था। काग़ज़ कुछ देर सामने किए रहे, बेनूर आँखों ने सफ़ा को ‎देखा, होंटों पर हल्की सी मुस्कुराहट आई, ज़ोर से खँकारा, ज़रा गर्दन उठाई, अहसन ‎उल्लाह ख़ां की तरफ़ देखा। वो उठकर तख़्त पर आए, काग़ज़गीर से काग़ज़ निकाला, ‎क़लम-दान से क्लिक का क़लम निकाला, अंगूठे पर उसका क़त जाँचा और घुटने पर ‎काग़ज़ रखकर लिखने को तैयार हो गए। ग़ालिब नहीफ़ आवाज़ में बोले, लिक्खो: 

    “मिर्ज़ा अलाई... गुमान ज़ीस्त बूद बरमन्नत ज़ुबैदरदी 
    बद अस्त मर्ग वले बदतर अज़ गुमान तो नीस्त 
    मेरा हाल मुझसे क्या पूछते हो, एक-आध रोज़ में हमसायों से पूछना... ‎
    न करदह हिज्र मदारा ब मन सर तो सलामत।

    अज़्कार-ए-रफ़्ता-ओ-दरमांदा हूँ (रुक कर) ये मिसरा चुपके चुपके पढ़ता हूँ,

    ‎“ए मर्ग-ए-नागहां तुझे क्या इंतज़ार है?” ‎

    “मर्ग का तालिब ग़ालिब (रुक कर) मुहर करके भेज दो।” 
    ‎ 
    फिर ग़फ़लत तारी हो जाती है, सब लोग ख़ामोश हो जाते हैं। अहसन उल्लाह ख़ां ‎क़लम-दान से मुहर निकाल कर सब्त करते हैं लेकिन कुछ सुनाई नहीं देता।(एक ‎फ़रिश्ता बाएं जानिब आ खड़ा होता है जिसे सिर्फ़ ग़ालिब देख रहे हैं) 

    फ़रिश्त-ए-अजल: क्या वाक़ई आपको मेरा इंतज़ार है? 

    ग़ालिब: हाँ, क्या तुम मुझे लेने आए हो? 

    फ़रिश्ता: (सुनी को अनसुनी करते हुए) मगर आप जीने से इस क़दर बेज़ार क्यों हैं? 

    ग़ालिब: मेरी तमाम उम्र हसरत-ओ-नाकामी में गुज़री। हमेशा अपने हम-चश्मों की सैर ‎चश्मी पर गुज़ारा होता रहा। मेरे तमाम हौसले दिल के दिल ही में रह गए। न कमाल ‎की क़दर हुई, न हुनर की पज़ीराई, फिर भी तुम कहते हो कि जीने से क्यों बेज़ार हूँ। 

    फ़रिश्ता: तो आप चलने के लिए तैयार हैं? मगर क्या आपको अपनी नई ज़िंदगी में ‎कुछ बेहतरी की उम्मीद है? 

    ग़ालिब: (आह करके) 

    उम्र-भर देखा किए मरने की राह 
    मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या 

    मेरी बेचैनी का यही तो बाइस है, मैं चलने के लिए बिल्कुल तैयार हूँ। 

    फ़रिश्ता: बहुत अच्छा, चलिए। 

    (फ़रिश्ता आहिस्ता से ग़ालिब के क़ल्ब पर अनगुश्त-ए-शहादत रखता है। ग़ालिब एक ‎आह के साथ आँखें खोल देते हैं, हाली आगे बढ़कर इशारों में मिज़ाजपुर्सी करते हैं।) 

    ग़ालिब: (नहीफ़ आवाज़ में) 

    दम-ए-वापसीं बरसर-ए-राह है 
    अज़ीज़ो बस अल्लाह ही अल्लाह है (हिचकी) 
    ‎ 
    ‎(पेशानी पर पसीने की बूँदें नज़र आने लगती हैं। चेहरे पर मुर्दनी छा जाती है। शेफ़्ता ‎जल्दी से उठकर शर्बत-ए-अनार का चमचा हलक़ में टपकाते हैं। रूह परवाज़ कर जाती ‎है। सब लोगों पर सुकूत तारी होजाता है। नौकर आँखें और मुँह बंद करके चादर उढ़ा ‎देता है।) 
    ‎ 
    ग़ालिब क़ब्र में 
    पस-ए-मंज़र: एक फ़राख़ बग़ली क़ब्र में ग़ालिब कफ़न में लिपटे पड़े हैं, हर तरफ़ ‎तारीकी छाई हुई है। यकायक एक सुराख़ से बारीक तेज़ रोशनी की शुआ दाख़िल होती है ‎जिससे पूरी क़ब्र में उजाला हो जाता है। रोशनी में दो फ़रिश्ते ग़ालिब के सिरहाने एक ‎दाएं एक बाएं जानिब दोज़ानू बैठे नज़र आते हैं और ग़ालिब के चेहरे से कफ़न हटाकर ‎उन्हें बग़ौर देखते हैं, दोनों फ़रिश्ते आहिस्ता-आहिस्ता बातचीत करते हैं।) 

    मुनकिर: अब इन्हें जगाना चाहिए। 

    नकीर: हाँ हाँ, इस मंज़िल में इन्हें आगे बढ़ाना चाहिए। 

    मुनकिर: मगर ये हैं कौन? 

    नकीर: ईं, इन्हें नहीं जानते, ये दिल्ली के मशहूर-ओ-मारूफ़ फ़ारसी और रेख़्ता के शायर ‎व इंशा पर्दाज़ मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब हैं। 

    मुनकिर: कौन ग़ालिब? वही तो नहीं जो (हंसकर) अपने ख़्याल में हम लोगों को दूर ‎रखने के लिए उम्र-भर शुग़ल मयख़्वारी फ़रमाते रहे। 

    नकीर: मैं समझा नहीं। 

    मुनकिर: तुमको याद नहीं, उन्होंने एक शे’र कहा था जिसके किरामन कातबीन अक्सर ‎चर्चे किया करते थे। 

    ज़ाहिर है कि घबरा के न भागेंगे नकीरें 
    हाँ मुँह से मगर बादा-ए-दोशीना की बू आए 

    नकीर: अख़ाह, यही वो ग़ालिब हैं (मुतफ़क्किर लहजे में) देखिए बारगाह क़ुद्स से इनके ‎लिए क्या हुक्म होता है। 

    मुनकिर: ये तो कोई ऐसी संगीन तक़सीर नहीं है। शायराना शोख़ी से ज़्यादा इसकी क्या ‎अहमियत है। 

    नकीर: बात ये है कि गुमराही क़रीब क़रीब तमाम शोअरा का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ है। वो ‎तो ख़ैर हमारे साथ ठिटोल थी। देखना ये अभी और क्या-क्या ऊटपटांग जवाब देते हैं। 

    मुनकिर: जो कुछ हो अब इन्हें जगाना चाहिए। 

    नकीर: अच्छा जगाता हूँ। 
    ‎ 
    ‎(ग़ालिब के कान के पास मुँह ले जाता है और गरजती हुई आवाज़ में “क़ुम ‎बेइज़्नल्लाह” कहता है, ग़ालिब के पलकों में हल्की हल्की हरकत पैदा होती है फिर ‎झुरझुरी सी आती है। एक दम से उठकर बैठ जाते हैं और आँखें फाड़ फाड़ कर इधर ‎उधर देखने लगते हैं।) 

    ग़ालिब: (फ़रिश्तों को देखकर) मैं कहाँ हूँ? 

    मुनकिर: क़ब्र में। 

    ग़ालिब: तुम कौन लोग हो? 

    मुनकिर: नकीर हम मुनकिर नकीर हैं। 

    ग़ालिब: (चीं ब जबीं हो कर) यहां भी आराम से सोना नहीं मिलेगा। 

    मुनकिर-नकीर: हम बहुक्म-ए-ख़ुदा आए हैं, आपसे चंद सवाल करके चले जाऐंगे। 

    ग़ालिब: बिसमिल्लाह फ़रमाईए। 

    (कहते हुए सँभल कर बैठ जाते हैं मगर चेहरे से बराबर नागवारी के असरात नुमायां हैं) 

    मुनकिर: (अरबी में) मिन रब्बिक 

    ग़ालिब: मैं अरबी से ज़रा कम वाक़िफ़ हूँ, तूरानी उल असल हूँ और पारसी ज़बान का ‎शायर और कभी कभी अहबाब की ख़ातिर रेख़्ता में भी फ़िक्र कर लिया करता था। 

    नकीर: दादार तवे कीस्त? 

    मुनकिर: कुदाम रसूल रा पीरो बूदी? 

    नकीर: ईमान चीस्त, नूर राज़ ज़ुल्मत चूँ शनाख़्ती? 

    (सवालात की बोछाड़ से घबरा उठे और बोले) 

    ग़ालिब: ठहरो ठहरो, मैं ये सब कुछ नहीं जानता। मैंने ज़िंदगी में एक शे’र कहा था ‎जिस पर मेरा अक़ीदा है जो चाहो समझ लो: 

    हम मुवह्हिद हैं हमारा कैश है तर्क-ए-रूसूम 
    मिल्लतें जब मिट गईं अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं 
    ‎ 
    ‎(मुनकिर नकीर दोनों अंगुश्त बदनदाँ रह गए और सोचने लगे। कई मिनट गुज़र गए, ‎यकायक फ़िज़ा में हल्का हल्का लहन दौड़ने लगा। ग़ालिब भौंचक्के हो कर इधर उधर ‎देखने लगे लेकिन मुनकिर नकीर मोअद्दब और नमाज़ की सी नीयत बांध कर सर ‎झुकाकर खड़े हो गए, लहन लहज़ा बह लहज़ा बढ़ता गया। यकायक साज़ ख़ामोश हो ‎गया और एक बा रोब लेकिन बारीक आवाज़ सुनाई दी।) 
    ‎ 
    मुनकिर नकीर: तुम्हारा काम ख़त्म हो गया। इस बंदे का जवाब तुम्हारे कानों के लिए ‎बिल्कुल नया है लेकिन बात उसने बड़े पते की कही है, इस पर अज़ाब-ए-क़ब्र की ‎ज़रूरत नहीं। किरामन कातबीन से कहो इसकी फ़र्द-ए-आमाल इसे सुना दें ताकि ये ‎अपने गुनाहों की जवाबदेही के लिए तैयार हो जाए।  

    (मुनकिर नकीर हैरत से ग़ालिब को देखते हुए फ़िज़ा में तहलील होजाते हैं।) 
    ‎ 
    ग़ालिब मिला-ए-आला की अदालत में 
    पस-ए-मंज़र: एक बहुत ही वसीअ कमरा, चारों तरफ़ बड़े बड़े तारे नज़र आरहे हैं, ‎शुमाल-ओ-जुनूब में दो-रूया सफ़ेद साये नज़र आरहे हैं, उन सायों के इख़्तिताम पर ‎मशरिक़ी किनारे पर एक 75-80 बरस का बूढ़ा पुश्त ख़म, बदन में रअशा लेकिन इस ‎उम्र में भी सुर्ख़ सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ सर झुकाए खड़ा है। उसके यमीन-ओ-यसार ‎एक एक परदार फ़रिश्ता काग़ज़ के पुलिंदे हाथ में लिए खड़ा है। उनके चेहरों से बेबाकी, ‎ख़ुदएतिमादी और तमानियत ज़ाहिर हो रही है। दोनों ख़ामोश जैसे किसी इंतज़ार में खड़े ‎हों। दफ़अतन हल्की हल्की लहन की आवाज़ पैदा होती है, तमाम साये सर झुका देते हैं ‎फ़रिश्ते ज़्यादा करख़्त अंदाज़ में खड़े होजाते हैं। उनके परों की सरसराहाट से ग़ालिब ‎चौंक कर सर उठाते हैं और फ़रिश्तों को दाएं-बाएं देखकर कुछ मुतहय्यर से हुए और ‎बोले अभी अभी तो दोनों से नजात हासिल की। आप फ़रमाईए आप कौन हैं?) 
    ‎ 
    किरामन हम किरामन कातबीन हैं। ये मिला-ए-आला है, हमें हुक्म मिला है कि तुम्हें ‎तुम्हारे उन जुर्मों की तफ़सील सुना दें जो तुमने दुनिया में किए हैं। 

    ग़ालिब: बहुत ख़ूब, आप भी अपने हौसले निकाल लीजिए। 

    कातबीन: (अदालत को मुख़ातिब करते हुए) ये मुल्ज़िम एशिया के मशहूर-ओ-मारूफ़ ‎ख़ित्ता-ए-हिंद का नामवर शायर-ओ-अदीब मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां अल-मुतख़ल्लुस ब ‎ग़ालिब मारूफ़ ब नौशा है। आज ही इसने दार उल-अमल को छोड़ा है, हम इसकी फ़र्द-‎ए- आमाल लेकर हाज़िर हुए हैं कि बारगाह-ए-जलालत में पेश करें। 

    निदा-ए-ग़ैबी: तुम को जो कुछ कहना हो कहो और मुजरिम को जवाबदेही का मौक़ा दो। 

    किरामन: अह्कमुल हाकिमीन इसकी फ़र्द-ए-आमाल इस्याँ से बिल्लकुल स्याह है। 

    निदा-ए-ग़ैबी: इसके ख़िलाफ़ ख़ास ख़ास इल्ज़ामात क्या हैं? 

    (किरामन कातबीन ने अपने अपने पुलिंदे खोले और यूं गोया हुए) 
    ‎ 
    किरामन: रब उल अरबाब, ये मुजरिम आलम-ए-अर्वाह 1212 हि. को रू-बकारी के लिए ‎आलम-ए-आब-ओ-गिल में भेजा गया। 13 बरस हवालात में रहा। 17 रजब 1225हि. को ‎इसके लिए हुक्म दवाम-ए-हब्स सादर हुआ। पांव में बेड़ी डाल दी गई और दिल्ली शहर ‎को ज़िंदाँ मुक़र्रर किया गया। नज़्म-ओ-नस्र मशक़्क़त ठेराई गई मगर ये गुरेज़ पा क़ैदी ‎जेलख़ाने से भाग कर तीन साल तक बिलाद-ए-शिरकिया में फिरता रहा, पायानेकार ‎कलकत्ता से पकड़ लाया गया और दो हथकड़ियां और बढ़ा दी गईं। बावजूद पांव बेड़ी से ‎फ़िगार और हाथ हथकड़ियों से ज़ख़्मदार और मशक़्क़त मुक़र्रर होने के उसने आज ‎‎1285 ई. तक क़लील मुद्दत में अपने जराइम में इज़ाफ़ा करने में कोई कसर उठा नहीं ‎रखी। चुनांचे इसका सबसे संगीन जुर्म ये है कि इसने बार गाह-ए-क़ुद्स में उम्र-भर सर-‎ए-नियाज़ नहीं झुकाया और न कभी रोज़ा रखा। 
    ‎ 
    निदा-ए-ग़ैबी: इस इल्ज़ाम का कोई सबूत? 

    कातबीन: ऐ दादार-ए-जहां, इसने ख़ुद अपने मुँह से ग़दर के बाद जब इसकी पेंशन बंद ‎हुई थी और दरबार में शिरकत से रोक दिया गया था, पंजाब की लेफ़टनटी के मीर-ए-‎मुंशी से ये कहा था कि तमाम उम्र में एक दिन शराब न पी हो तो काफ़िर और एक ‎दफ़ा नमाज़ पढ़ी हो तो गुनहगार, फिर मैं नहीं जानता कि सरकार ने मुझे बाग़ी ‎मुसलमानों में क्यों शुमार किया है। 
    ‎ 
    किरामन: ताला शानक यही नहीं, उम्र-भर क़िमारबाज़ी करता रहा। दुनिया में इसके लिए ‎भी सज़ा भुगती मगर इस फे़अल से बाज़ नहीं आया। रोज़ा इसने कभी न रखा। माह-ए-‎सियाम में कोठरी में दिन भर बंद रहता और शतरंज खेला करता। कभी रोटी का टुकड़ा ‎मुँह में डाल लिया, कभी दो घूँट पानी पी लिया और इसे रोज़ा बहलाने से ताबीर किया ‎करता था। 

    कातबीन: जल जलालक, एक मर्तबा जब बहादुर शाह ज़फ़र ने इस मसले में इससे ‎बाज़पुर्स की तो उसने इस्तिहज़ा के साथ ये जवाब देकर उसे ख़ामोश कर दिया; 

    सामान ख़ौर-ओ-ख़्वाब कहाँ से लाऊँ 
    आराम के अस्बाब कहाँ से लाऊँ 
    ‎ 
    रोज़ा मिरा ईमान है ग़ालिब लेकिन 
    ख़स-ख़ाना-ओ-बर्फ़-ए-आब कहाँ से लाऊँ 

    (कातबीन ये कह कर रुके ही थे कि ग़ालिब ने कराह कर आह की और गिड़गिड़ाकर ‎बोले) 
    ‎ 
    ग़ालिब: बार-ए-इलाहा, इन फ़रिश्तों की फ़र्द-ए-जुर्म तवील और मैं साल भर से बिस्तर ‎पर पड़े पड़े नहीफ़-ओ-नज़ार हो गया हूँ। तमाम जिस्म ज़ख़महाए बिस्तर से फ़िगार है। ‎इतनी ताक़त नहीं कि खड़े खड़े उनकी दास्तानें सुनूँ। शाहा, मुझे इजाज़त मर्हमत हो कि ‎कहीं पीठ टेक कर उनका इस्तिग़ासा सुनूँ। 

    निदा-ए-ग़ैबी: अच्छा तेरे साथ ये रिआयत की जाती है कि फ़र्श पर बैठ जा। 

    (साथ ही सायों में हरकत हुई और एक नर्म क़ालीन ग़ालिब के नीचे बिछा दिया गया ‎और एक गाव तकिया रख दिया गया। ग़ालिब एक आह के साथ तकिया का सहारा लेते ‎उस पर नीम दराज़ हो गए।)‎

    किरामन कातबीन: इसके फ़र्द-ए-जुर्म में कुछ और बयान करना बाक़ी है या इल्ज़ामात ‎ख़त्म हो गए। 
    ‎ 
    किरामन: आक़ाए दो-जहाँ, ये तो समुंदर से एक क़तरा था, इसके स्याह कारनामों का ‎सिलसिला तो लामतनाही है। 

    निदा-ए-ग़ैबी: अच्छा आगे बढ़ो। 

    किरामन: इसने बारगाह-ए-जलालत में बारहा गुस्ताख़ी की है और निहायत बेबाकी से ‎पेश आया है। 

    निदा-ए-ग़ैबी: इस इल्ज़ाम का कोई सबूत? 

    कातबीन: इस शे’र सेबढ़ कर इसकी दरीदा दहनी का और क्या सबूत हो सकता है; 

    ज़िंदगी अपनी जो इस तौर से गुज़री ग़ालिब 
    हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे 

    किरामन: इसने क़ज़ा-ओ-क़दर के इंतज़ामात पर भी अक्सर तमस्खुर किया है। 

    निदा-ए-ग़ैबी: वो क्योंकर? 

    कातबीन: एक दफ़ा रात को पलंग पर लेटे हुए तारों की ज़ाहिरी बे नज़्मी और इंतिशार ‎देखकर बोले जो काम ख़ुद-राई और लापरवाही से किया जाता है अक्सर बेढंगा होता है। ‎सितारों को देखो किस अबतरी से बिखरे हुए हैं न तनासुब न इंतज़ाम है न बेल न बूटा, ‎मगर बादशाह ख़ुद मुख़्तार है कोई दम नहीं मार सकता। 

    किरामन: और या बारी-ए-ताला, इसने क़ियामत से भी इनकार किया है। 

    (इतना सुनते ही ग़ालिब ज़रा चौंके और सँभल कर बैठ गए) 

    इसने एक शे’र कहा था जिससे क़ियामत का इनकार लाज़िम आता है; 

    नहीं कि मुझको क़ियामत का एतिक़ाद नहीं 
    शब-ए-फ़िराक़ से रोज़-ए-जज़ा ज़ियाद नहीं 

    (ग़ालिब जो ज़रा चौकन्ने हो गए थे शे’र सुनते ही फिर इत्मीनान से गाव तकिए से लग ‎कर बैठ गए और चुपके से “सुख़न-फ़हमी आलम-ए-बाला मालूम शुद” कह के ख़ामोश हो ‎गए।) 
    ‎ 
    कातबीन: इसके फ़र्द-ए-जुर्म में दूसरा संगीन जुर्म इसकी शराब से वालिहाना मुहब्बत है। ‎इसने तमाम उम्र मयख़्वारी की। किसी रोज़ नाग़ा नहीं किया। अक्सर रात को सरख़ुशी ‎के आलम में इसकी तलब-ए-शराब बढ़ जाती थी। 

    किरामन: शराब की अहमियत में इसे इतना ग़ुलू था कि इसके एक दोस्त ने इससे ‎तंबीहन कहा कि शराबखोर की दुआ क़बूल नहीं होती तो उसने निहायत दरीदा दहनी से ‎जवाब दिया कि भाई जिसे शराब मयस्सर हो उसको और क्या चाहिए जिसके लिए दुआ ‎करे। 

    कातबीन: ख़ुदावंद, यही नहीं बल्कि इसने बड़ी बड़ी बुज़ुर्ग हस्तीयों को अपनी शराबनोशी ‎का ठेकेदार क़रार दिया था, मसलन एक मर्तबा इसने साक़ी को धौंसने की नई तरकीब ‎निकाली, जब उसने मज़ीद शराब देने से इनकार कर दिया तो इसने कहा; 

    कल के लिए कर आज न ख़िस्त शराब में 
    ये सोर ज़न है साक़ी-ए-कौसर के बाब में 

    और तो और इसे मुतबर्रिक अश्या रहन रखकर और बेच कर शराब ख़रीदने में भी कोई ‎बाक न था, एक मर्तबा ये कह कर; 

    रखता फिरूँ हूँ ख़िरक़ा-ओ-सज्जादा रहन-ए-मय 
    मुद्दत हुई है दावत-ए-आब-ओ-हवा किए 

    इसने बुज़ुर्गों की ये मीरास भी बनिए की नज़र कर दी। 
    ‎ 
    किरामन: इसने ग़ज़ब ये किया कि हज़रत साक़ी-ए-कौसर को उम उल ख़बाइस का ‎साक़ी क़रार देकर उनके एतिमाद पर धड़ल्ले से पिया करता था। इसने इस यक़ीन का ‎किस बुलंद आहंगी से ऐलान किया है; 

    बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है 
    ग़ुलाम साक़ी-ए-कौसर हूँ मुझको ग़म क्या है 
    ‎ 
    इसने दुनिया की शर्म-ओ-हया भी बालाए ताक़ रख दी थी, मदहोशी में इसका भी ख़्याल ‎नहीं रहता था कि किस जगह पी रहा है और ज़ाहिरी रख-रखाव को तोड़ने पर फ़ख़्र ‎करता था; 

    जब मयकदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद 
    मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो 
    ‎ 
    कातबीन: या इल्लाहुल आलमीन, इसकी मय-नोशी की लत का अंदाज़ा इससे किया जा ‎सकता है कि जब मय-नोशी के बाइस इसके आज़ा-ओ-जवारेह ने बिल्कुल जवाब दे ‎दिया और इसके रअशादार हाथों ने जाम उठाने से इनकार कर दिया तो इसने सिर्फ़ बूए ‎मय पर इक्तिफ़ा की और अपने मुलाज़िमों को हुक्म दिया कि; 

    गो हाथ में जुंबिश नहीं आँखों में तो दम है 
    रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मिरे आगे 

    किरामन: इसने जाम नोशी की वो हवा बांध रखी थी कि जब कभी किसी फ़र्ज़ की ‎अदाई के सिलसिले में सरज़मीन दिल्ली से गुज़रा तो मुझे ऐसा महसूस होने लगता था ‎कि जैसे शराब से मतकीफ़ हुआ जा रहा हूँ। इस ज़ालिम शायर ने ये कह कर; 

    है हवा में शराब की तासीर 
    बादानोशी है बादा पैमाई 

    ख़्याल को हक़ीक़त बना दिया था। 
    ‎ 
    ‎(ग़ालिब इस तमाम रूएदाद-ए-जराइम के दौरान बिल्कुल ख़ामोश तकिया के सहारे आँखें ‎बंद किए लेटे रहे और सिवाए एक बार कराहने के उन्होंने एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा। ‎किरामन की फ़हरिस्त इल्ज़ामात ख़त्म हुई तो निदा आई।) 

    निदा-ए-ग़ैबी: इसकी फ़र्द-ए-जुर्म ख़त्म हुई या अभी कुछ बाक़ी है? 

    किरामन कातबीन: ख़ुदा वन्द-ए-जहाँ, इसकी फ़र्द-ए-जुर्म बहुत तवील है, जिसका सिर्फ़ ‎एक हिस्सा बारगाह आली-ओ-मुताली में हमने पेश किया। हमने अपनी उम्र में ऐसा फ़र्द ‎नहीं पाया जिसे इस्याँ कोशी में लुत्फ़ आता हो और जिसका हौसला गुनाह हमेशा बढ़ा ‎हुआ हो। इसने अपने मआसी को कभी अहमियत नहीं दी और उन्हें मामूली दर्जा का ‎समझता रहा। इसकी जुर्रत-ए-बेबाकाना मुलाहिज़ा फ़रमाएं, कहता है; 

    दरिया-ए-मआसी तुनुक-आबी से हुआ ख़ुश्क 
    मिरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था 
    ‎ 
    ग़ालिब का जवाब 
    पस-ए-मंज़र: मंज़र में ज़रा सा तग़य्युर हो जाता है, सिम्त मग़रिब में एक निहायत ‎ठंडी हल्की मावराए नीलगूं रोशनी उफ़ुक़ पर नुमायां हो जाती है। लहन ज़रा तेज़ ‎होजाता है। तमाम साये मा किरामन कातबीन के बाअदब सर झुकाकर खड़े होजाते हैं। ‎एक शीरीं मगर पुरअसर लहजे में आवाज़ आती है। 

    निदा-ए-ग़ैबी: ग़ालिब सुनता है, तेरे ख़िलाफ़ तेरे हर दम के साथियों ने क्या-क्या ज़हर ‎उगला है। तेरे पास इन इल्ज़ामात का क्या जवाब है? 

    (ग़ालिब इस बराह-ए-रास्त तख़ातुब से कुछ घबरा से गए और खाँसते कराहते उठकर ‎दोज़ानू बैठ गए। कुछ लम्हे ख़ामोश रहने के बाद बोले) 

    ग़ालिब: तू दाना है, तू बीना है, तुझसे कुछ पिनहां नहीं है। इन इल्ज़ामात की सेहत-ओ-‎अदम सेहत के मुताल्लिक़ में कुछ अर्ज़ नहीं कर सकता, लेकिन उनके बाअज़ ‎एतराज़ात के मुताल्लिक़ अगर इजाज़त मर्हमत हो तो कुछ अर्ज़ करूँ। 

    निदा-ए-ग़ैबी: हमारे हुज़ूर में तुझे हर तरह की आज़ादी है, तुझे अपनी बरीयत के ‎मुताल्लिक़ जो कुछ कहना हो कह। 

    ग़ालिब: आसी नवाज़, तेरे रहम-ओ-अलताफ़ बेपायाँ के सदक़े, मुझे सबसे पहले तो इस ‎इल्ज़ाम शराबनोशी के बारे में ये अर्ज़ करना है कि इन्हें मेरे शे’रों से सख़्त मुग़ालता ‎हुआ। मैंने जो कुछ कहा, ज़रह्-ए-इम्तिसाल अमर कहा। मेरी नीयत हमेशा बख़ैर रही। ‎मैंने दुनियाए आब-ओ-गिल में हमेशा साफ़ गोई से काम लिया और इस वक़्त तेरे हुज़ूर ‎में जहां सिदक़-ओ-किज़्ब आश्कारा हैं, मैं कहता हूँ कि; 

    मय से ग़रज़ निशात है किस रू सियाह को 
    इक-गू न बेख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए 

    मैंने हमेशा मय को अफ़्क़ार से नजात का ज़रिया समझा और अगर इस दार उलजज़ा ‎में भी मेरी क़िस्मत में अफ़्क़ार से रिहाई नामुमकिन है तो मुझे इस मय अंदाज़ा रुबा” ‎के दो जुरए पीने से गुरेज़ नहीं। 

    (किरामन-कातबीन इस जुरअत-ए-रिंदाना पर अपनी जगह मुतहय्यर रह गए।) 
    ‎ 
    निदा-ए-ग़ैबी: हमें तेरी साफ़ गोई बहुत पसंद आई, लेकिन इसके ये मअनी नहीं कि तू ‎बकिया इल्ज़ामात से बरी उल-ज़िम्मा हो गया। लेकिन इतनी रिआयत तेरी मंज़ूर है कि ‎तू ख़ुद बता कि तू ने कौन कौन से गुनाह किए हैं। 

    ग़ालिब: करीमा वाए पर्दापोश आसियाँ, मुझ ज़र्रा-ए-बेमिक़दार की क्या मजाल कि ‎हुक्मउदूली का ख़्याल तक भी दिल में लाऊँ, लेकिन इस यक़ीन के साथ कि तेरी रहमत ‎तेरे ग़ज़ब से बढ़ी हुई है और मैं इसी रहमत के दामन में पनाह लेकर बारगाह अक़्दस ‎में बसद इल्तिजा अर्ज़ करना चाहता हूँ कि; 

    आता है दाग़-ए-हसरत दिल का शुमार याद 
    मुझसे मिरे गुनाह का हिसाब ऐ ख़ुदा न मांग 

    (ये बेबाक तर्ज़ जवाब सुनकर किरामन-कातबीन के चेहरे ज़र्द पड़ गए और वो सर से ‎पैर तक काँपने लगे। कुछ सायों में भी हल्की जुंबिश हुई लेकिन मिला-ए-आला की इस ‎ख़ुनुक रोशनी में तबदीली नहीं हुई।) 
    ‎ 
    निदा-ए-ग़ैबी: इसके मअनी ये हुए कि तुम्हें अपने गुनाहों का इक़रार है जिन्हें तुम बयान ‎नहीं करना चाहते, इसलिए अपने गुनाहों की पादाश के लिए तैयार होजाओ। (ग़ालिब ये ‎सुनकर सन से हो गए। सारी ताक़त ग़ायब हो गई लेकिन उसने फिर जुर्रत करके ‎रहमत-ए-तमाम को अपील की।) 

    ग़ालिब: या अर्हम उलराहमीन, तेरा फ़रमाना बरहक़, इस ज़र्रा-ए-बेमिक़दार को ताब चूँ-‎ओ-चरा कहाँ, अगर बारगाह-ए-जलालत से मेरे हक़ में फ़ैसला हो गया है तो मुझे जाये ‎गुफ़्तगु कुजा लेकिन (ज़रा ज़ोर से) 

    नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद 
    या रब अगर इन करदा गुनाहों की सज़ा है 

    (किरामन-कातबीन तो ये बेअदबी देखकर ''सुब्बूहन क़ुद्दूसन रब्बना-ओ-रब उलमलायक ‎व अलरूह” पढ़ते हुए ख़ौफ़ के मारे सज्दे में गिर पड़े। सायों में भी यहां से वहां तक ‎एक लर्ज़िश पैदा हो गई। कुछ निगाहें ग़ालिब के चेहरे पर गड़ी हुई थीं, कुछ नज़रें अर्श ‎की तरफ़ थीं कि कब इस गुस्ताख ख़ाकी पर साइक़ा गिरती है लेकिन नूर पुरसुकून में ‎कोई जुंबिश नहीं हुई। कुछ देर बाद फिर आवाज़ आई।) 
    ‎ 
    निदा-ए-ग़ैबी: ग़ालिब ख़ाकी नज़ाद, हरचंद तेरी गुस्ताख़ियाँ नाक़ाबिल-ए-अफ़व हैं और ‎उनका तक़ाज़ा ये है कि तुझे चशमज़दन में तेरे कैफ़र-ए-किरदार को पहुंचा दिया जाये ‎ताकि दूसरों को इबरत हो लेकिन हमारी बारगाह में तेरी अदाए तुरकाना पसंद आगई है। ‎इसलिए तू अब तक यहां नज़र आरहा है, बजुज़ यादा गोई के तूने अपने गुनाहों से ‎बरीयत के सिलसिले में एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा। इससे यह नतीजा निकलता है कि ‎किरामन-कातबीन की मर्तबा फ़र्द-ए-जुर्म बिल्कुल सही-ओ-दरुस्त है। 

    (ग़ालिब फिर सिटपिटाए। कुछ देर सोचते रहे। आख़िर अपनी तरकश का आख़िरी तीर ‎चलाने के लिए तैयार हो गए।) 
    ‎ 
    ग़ालिब: या आफ़ी उल आफ़ईन, मुश्त-ए-ख़ाक ग़ालिब की जुर्रत कहाँ कि अहकाम-ए- ‎ख़ुदावंदी के ख़िलाफ़ कुछ कह सके लेकिन इतना ज़रूर अर्ज़ करने की रुख़सत चाहता है ‎कि इस अदालत रब्बानी और सलातीन अर्ज़ की अदालत में कुछ फ़र्क़ होना चाहिए। 

    निदा-ए-ग़ैबी: क्या मतलब है तेरा? 

    ग़ालिब: (गिड़गिड़ाकर) ऐ बेआसराओं के पनाह देने वाले, ये कहाँ का इन्साफ़ है कि; 

    पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़ 
    आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था 

    (किरामन-कातबीन ये सुनते ही ग़ुस्से से लाल-पीले हो गए। ऐसा मालूम होता था कि ‎अनक़रीब ग़ालिब पर टूट पड़ेंगे। लेकिन अदालत का रोब दाब उन्हें रोके हुए है।) 

    निदा-ए-ग़ैबी: ग़ालिब तेरी जुर्रत-ओ-बेबाकी की हद हो गई है। होश में आ, तू किससे ‎मुख़ातिब है। 

    ग़ालिब: (ख़जालत के अंदाज़ में) करम गुस्तरा; 

    रहमत अगर क़बूल करे क्या बईद है 
    शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का 
    ‎ 
    निदा-ए-ग़ैबी: गुनहगार बंदे, तेरी अदाए शर्मसारी भी हमें भा गई। तेरी कोताहियां माफ़ ‎की गईं, जा और हमारी रहमत-ए-बेपायाँ के समरात से लुत्फ़ अंदोज़ हो, फ़ीक़ाईल और ‎अनकाईल इसे रिज़वान के सपुर्द कर दो। ‎

    (रोशनी ग़ायब होजाती है। दो साये ग़ालिब की तरफ़ बढ़ते हुए नज़र आते हैं। कहीं कहीं ‎कोई तारा झिलमिलाता नज़र आता है और तमाम साये और किरामन-कातबीन फ़िज़ा में ‎तहलील होजाते हैं) 
    ‎ 
    ग़ालिब और रिज़वान 
    पस-ए-मंज़र: एक बहुत बड़ा सफ़ेद फाटक है जो नक़्श-ओ-निगार से बिल्कुल मुअर्रा है, ‎सिर्फ़ उसके ऊपर जगमगाते हुए तारों में “दार अस्सलाम” लिखा हुआ है। फाटक के ‎क़रीब एक नूरानी सूरत बुज़ुर्ग तस्बीह लिए मुसल्ले पर बैठे हुए हैं। एक जरीब ज़ैतूनी ‎बाएं तरफ़ रखी हुई है। ये बुज़ुर्ग आँखें बंद किए तहलील-ओ-तस्बीह में मसरूफ़ हैं। दाने ‎खट खट हाथ की हरकत से नीचे गिर रहे हैं। 
    ‎ 
    ग़ालिब जिनमें सिरे से काया पलट हो गई है, न झुर्रियाँ हैं न रअशा, न बदन पर ज़ख़्म ‎हैं। एक तनोमंद और सुर्ख़-ओ-सपैद जवान राना की शक्ल में फ़ीक़ाईल और अनकाईल ‎की मय्यत में दरवाज़े की तरफ़ आरहे हैं। दोनों फ़रिश्ते मुसल्ले से ज़रा दूर रुक जाते हैं ‎और अस्सलामु अलैकुम या रिज़वान कह कर उन पासबान दर को अपनी तरफ़ ‎मुतवज्जा करते हैं। ग़ालिब ने रिज़वान का नाम सुनकर ज़रा तन्क़ीदी निगाह से उन्हें ‎सर से पैर तक देखा और ज़ेर-ए-लब मुस्कुराए। रिज़वान ने आवाज़ सुनकर आँखें खोलीं ‎और पुर रोब आवाज़ में वाअलैकुम अस्सलाम या अख़ी, कह कर जवाब दिया और ‎कनखियों से ग़ालिब की तरफ़ देखते हुए पूछा, ये नावक़्त कैसे आना हुआ और ये ‎तुम्हारे साथ कौन है? 
    ‎ 
    अनकाईल: ये ग़ालिब हैं। 

    रिज़वान: ग़ालिब कौन? 

    (इससे पहले कि फ़रिश्ते कुछ जवाब दें ग़ालिब ने सर को झटका देते हुए निहायत सूखे ‎मुँह से कहा) 

    ग़ालिब: पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है 

    कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या 

    (रिज़वान ने शे’र सुनकर तीखे चितवनों से ग़ालिब को देखा लेकिन हाथ के इशारे से ‎फिर फ़रिश्तों से पूछा कि कौन हैं?) 
    ‎ 
    फ़ीक़ाईल: ये दिल्ली के मशहूर-ओ-मुस्तनद शायर रेख़्ता-ओ-फ़ारसी मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ‎ग़ालिब हैं। आज ही दार उल-अमल से दार उल-जज़ा में आए हैं और अभी अभी इन्हें ‎बारगाह-ए-इलाही से आमुर्ज़िश का परवाना इनायत हुआ है। बहुक्म रब उल-आलमीन ‎हम इन्हें आपके सपुर्द करने आए हैं। 
    ‎ 
    रिज़वान: (उछल कर) कौन असदुल्लाह ख़ां मिर्ज़ा नौशा मुनकिर जन्नत और इसकी ‎आमुर्ज़िश... जन्नत का परवाना (अर्श की तरफ़ सर उठाकर) ख़ुदावंद तेरे इसरार से हम ‎सब नावाक़िफ़ हैं (कुछ धीमे पड़कर और ग़ालिब की तरफ़ मुड़ते हुए) मगर तुम को ये ‎ताक़-ए-निस्याँ का गुलदस्ता कैसे याद आया? 

    ग़ालिब: (तेवरियाँ बदल कर) क्या मतलब? 

    रिज़वान: क्या तुमने दुनिया में ये शे’र नहीं कहा था; 
    ‎ 
    सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का 
    वो इक गुलदस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का 
    ‎ 
    ग़ालिब: याद किस मसखरे को आई और तलब किस मुँह से करता। मेरा मक़ूला तो ये है ‎कि; 

    बेतलब दें तो मज़ा इसमें सवा मिलता है 
    वो गदा जिसको न हो ख़ू-ए-सवाल अच्छा है 
    ‎ 
    रिज़वान: तो फिर इरादा क्या है? 

    ग़ालिब: ख़ूब! ये आपका तजाहुल-ए-आरिफ़ाना है। आपके पास भेजा किस लिए गया हूँ ‎कि आप मुझे जन्नत की सैर कराएं।  

    रिज़वान: मगर तुम तो दुनिया में जन्नत को दोज़ख़ में झोंक देने पर आमादा थे। 

    ग़ालिब: हाय हाय जो रोना मुझे दुनिया में था वही यहां भी है। वाह री क़िस्मत। 

    रिज़वान: (पेच-ओ-ताब खाकर) इस जुमले के क्या मअनी? 

    ग़ालिब: जब तक दुनिया में रहा इस ग़म में ख़ून-ए-जिगर खाया किया कि मेरा कलाम ‎न लोगों की समझ में आया और न उन्होंने समझने की कोशिश की। इस ख़्याल से ‎कुछ कुछ तसल्ली हो जाया करती थी कि ख़ैर यहां न सही आलम-ए-अर्वाह में क़ुदसियों ‎से दाद-ए-कलाम पाऊँगा, मगर देखता हूँ तो यहां भी ईं ख़ाना तमाम आफ़ताब अस्त का ‎मज़मून नज़र आता है। 

    रिज़वान: (इस जवाब से कुछ जिज़बिज़ हुए और ज़रा रुक कर बोले) ख़ैर, तुम्हें जन्नत ‎में तो लिए चलता हूँ मगर जिस फ़िक्र में आप जा रहे हैं वो कहीं नाम को भी नहीं ‎मिलेगी, इससे जमा ख़ातिर रखिए। 

    ग़ालिब: आपकी ये चीसतानी तक़रीर तो मेरी समझ में आई नहीं। इस मुअम्मा को आप ‎ही हल फ़रमाएं। 

    रिज़वान: (भन्नाकर) ये शे’र तुम्हारा नहीं है? 

    ग़ालिब: कौन सा शे’र? 

    रिज़वान: यही कि; 

    वो चीज़ जिसके लिए हमको हो बहिश्त अज़ीज़ 
    सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम मुश्क-बू क्या है 
    ‎ 
    ग़ालिब: जी शे’र तो मेरा है लेकिन मैंने आपसे बादा-ए-गुलफ़ाम की दरख़्वास्त की होती ‎तब आप कहते। इस क़ब्ल अज़ मर्ग वावेला के क्या मअनी? 

    रिज़वान: (लाजवाब हो कर) अच्छा ख़ैर, चलो मगर एक बात का वादा करो कि सैर-ए-‎बाग़ के बाद कोई आएं बाएं शाएं राय नहीं दोगे। 

    ग़ालिब: आपको ये शुबहा कैसे पैदा हुआ? 

    रिज़वान: बात ये है कि तुम्हारे इस शे’र से मुतरश्शेह होता है; 

    कोई दुनिया में मगर बाग़ नहीं है वाइज़ 
    ख़ुल्द भी बाग़ है ख़ैर आब-ओ-हवा और सही 

    कि तुम उसे भी अर्ज़ी बाग़ों का सा समझते हो। 
    ‎ 
    ग़ालिब: (झल्लाकर) मैं सैर जन्नत से दर-गुज़रा, आप तो निकाह की सी शर्तें क़बूलवा ‎रहे हैं। (एक तिलाई कार्ड बढ़ाते हुए) लीजिए परवाना जन्नत में इन पाबंदियों के साथ ‎जन्नत में दाख़िल होने से दर-गुज़रा। 

    (ये कह कर चलने के लिए मुड़ते हैं) 
    ‎ 
    रिज़वान: ठहरो ठहरो! बात सिर्फ़ इतनी है कि तुम आदमी ज़रा मख़दूश हो। इसलिए ‎मुझे इतनी हिफ़ाज़ती तदाबीर इख़्तियार करना पड़ीं। वर्ना मैं तो बिला एक लफ़्ज़ कहे ‎लोगों को जन्नत में दाख़िल कर दिया करता हूँ। मेरा बस चले तो मैं तुमको हरगिज़ ‎बहिश्त के अंदर क़दम न रखने दूं मगर हुक्म-ए-हाकिम मर्ग-ए-मुफ़ाजात और हुक्म भी ‎रब उल- आलमीन का, सरताबी की मजाल नहीं... अच्छा चलो।

    (ग़ालिब और रिज़वान साथ साथ दरवाज़े में दाख़िल होते हैं। ग़ालिब ने महाकमाना नज़र ‎से हर चीज़ को देखना शुरू किया और रिज़वान के साथ इधर उधर घूमते रहे। बशरे से ‎ये मालूम होता है कि जन्नत ज़्यादा पसंद नहीं आई। उनकी नज़र टहलते टहलते दूर ‎पर चमकते तुंद-ओ-तेज़ शोलों पर पड़ती है) 
    ‎ 
    ग़ालिब: ये तेज़ रोशनी कैसी है? 

    रिज़वान: नार-ए-दोज़ख़ का इलतिहाब है। 

    ग़ालिब: (बग़ैर सोचे समझे अर्श की तरफ़ सर उठाकर) बार-ए-इलाहा, तूने अपने करम ‎बेपायाँ और रहमत-ए-लामतनाही के सदक़े मुझ गुनहगार को वो कुछ अता किया ‎जिसका मैं किसी तरह अह्ल नहीं था, एक आख़िरी आरज़ू मेरी और पूरी हो जाए।  

    निदा-ए-ग़ैबी: अब क्या चाहता है? 

    ग़ालिब: क्यों न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लूँ या-रब 
    सैर के वास्ते थोड़ी सी फ़िज़ा और सही 

    निदा-ए-ग़ैबी: नादान तेरी जो बात है निराली है। तेरी ये आरज़ू पूरी होने से क्यों रह ‎जाये, जा और अपनी अहमक़ाना ख़्वाहिश का तमाशा देख। 
    ‎ 
    ‎(दोज़ख़ के शोले आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते हैं। पहले तो ग़ालिब निहायत ज़ौक़-ओ-शौक़ से ‎उनके रक़्स-ओ-तमूज का तमाशा देखते रहे मगर जब शोले क़रीब होते गए तो ग़ालिब ‎तपिश और इलतिहाब से परेशान होने लगे। शोले और क़रीब आए, ग़ालिब हिद्दत से ‎घबराकर सज्दे में गिर पड़े और गिड़गिड़ाकर चीख़ने लगे।) 
    ‎ 
    ग़ालिब: बार-ए-इलाहा, बस मुझमें इन शोलों से खेलने की ताब नहीं। मैं अपनी ‎अहमक़ाना ख़्वाहिश से भर पाया। जान आफ़रीना, मुझे इस अतीए से माफ़ रख। (गर्मी ‎से ग़ालिब बेहोश होजाते हैं और शोले आहिस्ता-आहिस्ता पीछे हट जाते हैं।)‎

     

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