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ग़ज़ल
है नाज़ संग को कि वही इक है वज्ह-ए-ज़ख़्म
शीशे को आज उस के मुक़ाबिल में छोड़ दो
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
वाह-रे इंसाफ़ इतना भी न वाँ पूछा गया
ये क़ुसूर-ए-हुस्न है या अस्ल में तासीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
उस की क्या वज्ह मिरे होते वहाँ क्यूँ न रहें
क्यूँ रहे ज़ुल्फ़-ए-सियह आप के रुख़्सार के पास
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
क्या वज्ह तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम में मज़ा नहीं
ऐ दौर-ए-चर्ख़ आज वो शायद नहीं शरीक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
सीने में दिल-ए-ग़म-ज़दा ख़ूँ हो गया शायद
बे-वज्ह भी होते हैं कहीं अश्क-ए-रवाँ सुर्ख़