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ग़ज़ल
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
टूट गया जब दिल तो फिर ये साँस का नग़्मा क्या मा'नी
गूँज रही है क्यूँ शहनाई जब कोई बारात नहीं