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ग़ज़ल
मुझे चाक-ए-जेब-ओ-दामन से नहीं मुनासिबत कुछ
ये जुनूँ ही को मुबारक रह-ओ-रस्म-ए-आमियाना
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
गोया इस सोच में है दिल में लहू भर के गुलाब
दामन ओ जेब को गुलनार करूँ या न करूँ