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ग़ज़ल
शाम पीली राख में ख़ून-ए-शफ़क़ का इंजिमाद
रात जैसे ख़्वाब-ए-यख़-बस्ता हों दिन अकड़े हुए
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
हुस्न और उस पे हुस्न-ए-ज़न रह गई बुल-हवस की शर्म
अपने पे ए'तिमाद है ग़ैर को आज़माए क्यूँ