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ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह
और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मिरे मौसमों के भी तौर थे मिरे बर्ग-ओ-बार ही और थे
मगर अब रविश है अलग कोई मगर अब हवा कोई और है
नसीर तुराबी
ग़ज़ल
कुछ लिखा है तुझे हर बर्ग पे ऐ रश्क-ए-बहार
रुक़आ वारें हैं ये औराक़-ए-ख़िज़ानी उस की
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
चमन में किस के ये बरहम हुइ है बज़्म-ए-तमाशा
कि बर्ग बर्ग-ए-समन शीशा रेज़ा-ए-हलबी है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ऐ शजर-ए-हयात-ए-शौक़ ऐसी ख़िज़ाँ-रसीदगी
पोशिश-ए-बर्ग-ओ-गुल तो क्या जिस्म पे छाल भी नहीं
जौन एलिया
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
बर्ग-ए-गुल लाई सबा क़ब्र पे मेरी न नसीम
फिर गई ऐसी ज़माने की हुआ मेरे बा'द