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ग़ज़ल
हो जाए बखेड़ा पाक कहीं पास अपने बुला लें बेहतर है
अब दर्द-ए-जुदाई से उन की ऐ आह बहुत बेताब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी
गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
तुम भी हर शब दिया जला कर पलकों की दहलीज़ पे रखना
मैं भी रोज़ इक ख़्वाब तुम्हारे शहर की जानिब भेजूँगा
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
सँवारे जा रहे हैं हम उलझती जाती हैं ज़ुल्फ़ें
तुम अपने ज़िम्मा लो अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
तुझ से मिल कर आने वाले कल से नफ़रत मोल ली
अब कभी तुझ से न बिछड़ूँ ये दुआ अपनी जगह