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ग़ज़ल
ख़ुश-नुमा या बद-नुमा हो दहर की हर चीज़ में
'जोश' की तख़्ईल कहती है कि नुदरत देखिए
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
बेकल उत्साही
ग़ज़ल
ज़िंदगी कब से है काँटों की तिजारत से फ़िगार
फिर भी तख़्ईल में फूलों की दुकाँ है अब तक
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
आशियानों में छुपे बैठे हैं सब शाहीन-ओ-ज़ाग़
तुम भी 'शाइर' ताइर-ए-तख़्ईल के पर बाँध लो
हिमायत अली शाएर
ग़ज़ल
कुछ न पूछो तुम मिरी तख़्ईल की 'पर्वाज़' को
भीड़ में भी भीड़ से दामन बचा कर ले गया
विजेंद्र सिंह परवाज़
ग़ज़ल
उसी को ज़ख़्म देने पर तुला था सर-फिरा सूरज
मिरी तख़्ईल की बुनियाद जिस शहपर पे रक्खी थी
नाज़िर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
लम्स-ए-हर्फ़-ओ-सौत की लज़्ज़त से वाक़िफ़ थी मगर
पहलू-ए-आवाज़ में तख़्ईल शरमाती रही
ज़हीर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बहर-ए-तख़ईल में अगली सी रवानी वो कहाँ
मौजज़न अब भी हैं गो गंग-ओ-जमन तेरे बाद