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ग़ज़ल
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मिरी ज़िंदगी के चराग़ का ये मिज़ाज कोई नया नहीं
अभी रौशनी अभी तीरगी न जला हुआ न बुझा हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
ये वो माजरा-ए-फ़िराक़ है जो मोहब्बतों से न खुल सका
कि मोहब्बतों ही के दरमियाँ सबब-ए-जफ़ा कोई और है
नसीर तुराबी
ग़ज़ल
जब मकान-ओ-ला-मकाँ सब से गुज़र जाता हूँ मैं
अल्लाह अल्लाह तुझ को ख़ुद अपनी जगह पाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
कुछ इम्तिहान-ए-दस्त-ए-जफ़ा कर चुके हैं हम
कुछ उन की दस्तरस का पता कर चुके हैं हम