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ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला
मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊ'र आ जाता है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना
पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ
वही आँसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएँ
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
वो यूँ शीशे को हर पत्थर से टकराया नहीं करते
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
अभी मरते हैं हम जीने का ता'ना फिर न देना तुम
ये ता'ना उन को देना जिन से ऐसा हो नहीं सकता